बुधवार, 9 दिसंबर 2009

लिब्रहान रि‍पोर्ट

सन 1992 में बाबरी मस्‍ज‍ित के गि‍राए जाने के पश्‍चात इसकी जांच के लि‍ए  बैठाए  गए अायोग ने 17 वर्षो के बाद अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी । पिछले दो दिनों से संसद में इसमें चर्चा हो रही है। चर्चा के दौरान सत्‍ता पक्ष व विपक्ष ने एक दूसरे के उपर आरोप एवं प्रत्‍यारोप लगााने में कोई कसर नहीं छोड रखी है। भजपा जहां बाबरी विध्‍वंस को अचाानक हुआ बताकर अपने को बचााना चाहती दिखी वहीं पर समाजवादी पार्टी ने काग्रेस को बराबर का गुनहगार ठहराया कारण उस समय केंद्र में काग्रेस की सरकार थी। उनका आरोप था कि केंद्र सरकार  भाजपा के रवैये केा जानते हुए भी समय रहते हुए  आवश्‍यक कदम नहीं उठाए । इसी कारण से बाबरी मस्‍जित टूट गयी और देश का सामप्रदायिक माहौल खराब हो गया। मुलायम सिंह जी ने उस घटना की याद दिलाई जब उन्‍होने मस्‍जित बचाने के लिए कार्य सेवको पर गोली चलवा दी थी और इस घअना में कई कार्सेवक मारे गए थे।  कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी ने भी जहां भजपा को एक तरफ दोषी ठहराया तो वही दूसरी तरफ तत्‍कालीन केंद्र सरकार पर भी निशाना साधा । इस बहस का अंत गृह मंत्री द्वारा सरकार की तरफ से जवाब देकर समाप्‍त हुआ।  मैं गृहमंत्री का भाषण सुन रहा था और सत्‍ता पक्ष और विपक्ष दोनो  पक्षों के वक्‍ताओं को सुनकर यही लग रहा था कि कोई भी पक्ष इस मुददे को अपने लाभ के लिए उपयोग करने में कमतर नहीं था । गृहमंत्री जी जब बाबरी मस्‍जित के विघ्‍वंस का सिलसिलेवार विवरण सुनाओ रहे थे तो मुझे ऐसा महसूस हूआ कि जैसे बाबरी मस्‍जिद आज पुन तौडी जा रही हो। सच कहू तो गृहमंत्री ने जिस अच्‍छे ढग से पूरी घअना का विवरएा संसद के समक्ष रखा उससे समप्रदाय विशेष के मन में एक दूसरी सम्‍प्रदाय के प्रति सोया हुआ विद्वेष पुन जागने का काम कर सकता है। बाबरी मस्‍जित टूटने के पश्‍चाात ही हमारे देश में आंतकवादी घटनाओं की बाढ आ गई । मंदिर सड़कों बाजारों रेलों दफ्तरों सार्वजनिक स्‍थलों और कहा नहीं आंतकवादी घअनाएं घटित हुई इसमें हजारों की संख्‍या में निदोर्ष लोागों की जाने गई तथा सम्‍प्रदाय विशेष को इस कार्य से जोड कर देखा जाने लगा। पिछले एक वर्षों से देश में आंतकवादी घटनाएं घटित नहीं हो रही हैं या हो भी रही हैं तो उनकी संख्‍या नगण्‍य है। ऐसे में सत्‍ता पक्ष और विपक्ष द्वारा सम्‍प्रदाय विशेष को अपनी तरफ करने के लिए संसद में किए जा रहे शब्‍दों का प्रयोग, दिए गए बयान आने वाले दिनों में  पुन आंतकवादी घटनाओं को निमंत्रित करेंगे जिसमें एक बार पुन सैकड़ों बेगुनाह लोग मारे जाएगे। मैं इस लेख के माध्‍यम से अनुरोध करता हॅू कि इस तरह के संवेदनशील मुददो पर बहस करते समय भाषा संयत होनी चाहिए जिससे नकारात्‍मक सोच के लोग इन अवसरों का लाभ न उठा सकें।

विनोद राय

बुधवार, 25 नवंबर 2009

26 नवंबर 2009

आज से ठीक एक साल पहले आज ही के दिन पूरे देश ने आतंकवादियों के कुकृत्‍यों का सबसे घिनोना खेल देखा था। मुंबई में हुए आतंकवादी हमले में करीब 200 लोग मारे गए और 600 लोग घायल हुए। इन हमलों ने  पूरे देश को झकझोर के रख दिया था। कितने परिवार आज भी इस दिन का याद नहीं करना चाहते हैं क्‍योंकि इन हमलों ने किसी की मांग का सिंदूर, किसी मां का बेटा, किसी पिता का सहारा, किसी बहन का भाई, किसी परिवार का सहारा, तो कोई किसी का प्‍यारा छीन लिया था। आज उस घटना को घटित हुए पूरा एक साल हो गए है, यह दिन आत्‍मचिंतन का विषय है कि इस दौरान हमने और हमारी सरकार ने इन घटनाओं को रोकने तथा इन घटनाओं से पीड़ित लोगों के लिए क्‍या किया। यह सच है कि इस घटना के दौरान सारा देश एकता के सूत्र में बंध गया था हर भारतवासी ने आतंकवाद से लड़ने की कसमें खाई थी, हमारे बुद्धिजीवी, साहित्‍यकार, रंगमंच से जुड़े कलाकार, उद्योग से जुड़े उद्योगपति के अलावा देश के हर व्‍यक्‍ति ने  आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठाई थी। कुछ ने जुलूस निकालकर, तो कुछ ने मोमबत्‍तियां जलाकर तो कुछ ने बैनर पोस्‍टरों के माध्‍यम से  तो कुछ ने सभाए आयोजित करके, तो कुछ ने गोष्‍ठियां आयोजित करके आम जनता और सरकार को आतंकवाद से निपटने के लिए अपना पूरा सहयोग एवं समर्थन दिया था। पर वास्‍तविकता क्‍या है एक आतंकवादी जिसे जिंदा पकड़ लिया गया था उसे आज भी सलाखों के पीछे रखा गया है तथा फास्‍ट्रेक कोर्ट में मुकदमा चलाने के बावजूद भी उसे सजा नहीं मिल पाई है।  इस हमले में मुंबई पुलिस के कुछ आला अफसर भी शहीद हुए थे उनके परिवारों को भी यथोचित सरकारी सहायता एवं समर्थन नहीं मिला है क्‍योंकि इन परिवारों के लोग सरकार की नाकामी के बारे में सार्वजनिक बयान दे रहे हैं। यह सच है कि जो भुक्‍तभोगी होता है उसे ही पीड़ा का वास्‍तविक एहसास होता है। ऐसे में क्‍या सरकार इन शहीदों के परिजनों के देखभाल के लिए संवेदनशील नहीं है। यह बहुत ही दुख का विषय है। इसके अतिरिक्‍त यह पूर्णत: प्रमाणित होने पर कि आतंकवादी हमला पड़ौसी देश द्वारा प्रायोजित था तथा हमलावर भी पाकिस्‍तानी थे हमारी सरकार, आज तक एक भी इस षडयंत्रकारी को गिरफ्तार कराने में सफल नहीं हो सकी है। इसके लिए उसे अमेरिकी प्रशासन का भी सहारा लेना पड़ रहा है। परंतु अभी तक परिणाम निश्‍फल ही रहे हैं। ऐसे में केवल शीर्षस्‍थ लोगों द्वारा पीड़ितों के प्रति संवेदना प्रकट करना, श्रृंद्धाजलि सभाओं में जाकर शहीदों को श्रृंद्धाजलि दे देना तथा बार-बार यह आश्‍वासन देना कि षडयंत्रकारियों को जब तक दंड नहीं दिला लेंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, आमजन के गले नहीं उतरता है ऐसे में आवश्‍यकता है कि हमारी सुरक्षा  व्‍यवस्‍था और खुफिया तंत्र इतना मजबूत और दृढ हो कि भविष्‍य में इस तरह की घटनाएं पुन घटित न हों तथा आतंकवादी ताना-बाना तार-तार हो जाए। साथ ही, अपना सर्वोच्‍च बलिदान देने वालों के परिजनों की पूरी देखभाल सुनिश्‍चित हो तथा जनता में आतंकवाद से लड़ने का एक जनजागरण अभियान चलाना चाहिए क्‍योंकि यह संभव नहीं है कि सरकार हर समय हर व्‍यक्‍ति को हर स्‍थान पर सुरक्षा मुहैया करा सकती है। ऐसे में जब तक सरकार इससे निपटने के लिए अपनी जिम्‍मेदारी का निर्वहन खुद गंभीरता से  नहीं करती है तब तक आम व्‍यक्‍ति से जिम्‍मेदारी निभाने की उम्मीद रखना उचित नहीं होगा।
इस घटना में मारे गए सभी शहीदों के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।


विनोद राय  

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है हिन्दी का प्रयोग

विज्ञान पत्रिका करेंट साइंस में एक अनुसंधान का विवरण प्रकाशित हुआ है, जिसके बारे में हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय सहारा में भी एक समाचार प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र द्वारा किए गए इस अनुसंधान का निष्कर्ष यह है कि अंग्रेज़ी की तुलना में हिन्दी भाषा के प्रयोग से मस्तिष्क अधिक चुस्त दुरुस्त रहता है।

अनुसंधान से संबन्धित मस्तिष्क विशेषज्ञों का कहना है कि अंग्रेज़ी बोलते समय दिमाग का सिर्फ बायाँ हिस्सा सक्रिय रहता है, जबकि हीन्दी बोलते समय मस्तिष्क का दायाँ और बायाँ, दोनों हिस्से सक्रिय हो जाते हैं जिससे दिमाग़ी स्वास्थ्य तरोताज़ा रहता है। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र की भविष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के प्रभाव पर भी अध्ययन करने की योजना है।

अनुसंधान से जुड़ी डॉ. नंदिनी सिंह के अनुसार, मस्तिष्क पर अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषा के प्रभाव का असर जानने के लिए छात्रों के एक समूह को लेकर अनुसंधान किया गया। अध्ययन के पहले चरण में छात्रों से अंग्रेज़ी में जोर-जोर से बोलने को कहा गया और फिर हिन्दी में बात करने को कहा गया। इस समूची प्रक्रिया में दिमाग़ की हरकतों पर एमआरआई के ज़रिए नज़र रखी गई। परीक्षण से पता चला  कि अंग्रेज़ी बोलते समय छात्रों के दिमाग का सिर्फ बायाँ हिस्सा सक्रिय था, जबकि हिन्दी बोलते समय दिमाग के दोनों हिस्से (बायाँ और दायाँ) सक्रिय हो उठे।

अनुसंधान दल के मुताबिक, ऐसा इसलि होता है क्योंकि ग्रेज़ी एक लाइन में सीधी पढ़ी जाने वाली भाषा है, जबकि हिन्दी शब्दों के ऊपर-नीचे और बाएँ-दाएँ लगी मात्राओं के कारण दिमाग को इसे पढ़ने में अधिक कसरत करनी पड़ती है, जिससे इसका दायाँ हिस्सा भी सक्रिय हो उठता है। इस अनुसंधान के परिणामों पर जाने माने मनोचिकित्सक डॉ. समीर पारेख ने कहा कि ऐसा संभव है। उनका कहना है कि हिंदी की जिस तरह की वर्णमाला है, उससे मस्तिष्क को कई फायदे हैं।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

भारतीय मानसिकता


मै काफी दिनो से यह सोच रहा था कि जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है, वस्‍तुओं के दाम आम जनता की पहुंच से बाहर हो रहे है, जनता अपनी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में असहाय महसूस कर रही है। उसका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ सकता है। इसके लिए उचित अवसर भी आ रहा था। यह अवसर था तीन राज्‍यों में विधानसभा चुनाव का। वोट पड़ गए। मतगणना का दिन आ गया। मैंने सोचा कि आज सरकार को अपनी नाकामयाबी की कीमत चुकानी पड़ेगी परंतु यह क्‍या। जैसे-जैसे मतगणना आगे बढ़ रही थी वैसे-वैसे मैं अपने चिंतन पर शर्मिंदा था। शाम होते-होते तीनों राज्‍यों में सत्‍ता पक्ष सतारूढ़ होने के पुन:  करीब था। मेरा मन उद्वेलित हो उठा कि आम जनता को यही अवसर था जब वह सरकार को उसके महंगाई रोकने की असफलता का मजा चखा सकती थी परंतु परिणाम ठीक इसके विपरीत आया। चिंतन फिर चैतन्‍य हुआ और मन इन परिणामों के मद्देनजर भारतीय जनमानस के चिंतन के मूल में जा पहुंचा। अंत में मैं यही निष्‍कर्ष निकाल पाने में कामयाब रहा कि भारतवासी सचमुच एक शांतप्रिय जनमानस है जिनसे महंगाई सही जा सकती है, वह अधिक मूल्‍य पर सामान खरीद कर अपना जीवनयापन कर सकता है, अपने  खाने में कटौती करके महंगाई की मार सह सकता है परंतु उसके लिए आतंकवाद और सम्‍प्रदायवाद बर्दास्‍त नहीं है। इन परिणामों के पीछे यही एक चीज मुखरित होकर सबके समक्ष आती है कि अगर देश में अमन चैन है, साम्‍प्रदायिक सदभाव है, दंगे-फसाद  नहीं है, आम इंसान शांति की जिंदगी जी पा रहा है। उसका जीवन सुरक्षित है तो वह महंगाई को सह सकता है। महंगाई उसके लिए छोटी बुराई है। इन चुनावों ने पूरे देश के समक्ष एक बार फिर से भारतीय जनमानस की धर्म निरपेक्षता और शांतप्रियता को सबके समक्ष रखा है। अत: सरकार को अब महंगाई रोकने का भरपूर प्रयास करना चाहिए।


विनोद राय

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

ग़ज़ल

वो सर प्रेमियों के कटा कर चले
पुजारी अहिंसा के क्या कर चले


सफल है वही राजनीती में भी
मुखौटा जो मुख पे चढ़ा कर चले


चुनावों के दंगल में जीते वही
है सिक्का जो खोटा चला कर चले


ग़रीबों का दिल जीत कर हर कोई
इशारों पे अपने नचा कर चले


भगीरथ तो लाया था गंगा यहाँ
धरा हम मगर ये तपा कर चले


वो बूढ़ा नहीं दिल से बच्चा ही है
कपट से जो ख़ुद को बचा कर चले


तसव्वुर में तारी ख़ुदा ही तो था
जो रूठे सनम को मना कर चले


मुहब्बत ज़रा सी जहाँ पर मिली
वहीं दिल की बस्ती बसा कर चले


था मुश्किल जिसे करना हासिल उसे
निगाहों-निगाहों में पा कर चले


जवाबों ने जब-जब सुलाया मुझे
सवालों के काँटे जगा कर चले


कबीरा तू संग अपने ले चल हमें
कि अपना ही घर हम जला कर चले

बुधवार, 16 सितंबर 2009

मितव्‍ययिता का दिखावा

हमारे राजनेताओं में कब कौन सा प्रेम जाग उठे, कहना कठिन है। सामान्‍यत: वे सर्वप्रथम अपने बारे में सोचते है, फिर अपने परिवार के बारे में, पुन: अपने शार्गिदों के बारे में, अपने रिश्‍ते-नातेदारों के बारे में तथा सबसे अंत में समाज और देश के बारे में सोचते है। यही इनकी ढांचागत विशेषता है। यही इनकी अंतर्निहित मजबूती है। देश और समाज के बारे में सोचना तो इनकी मजबूरी है, इनकी बेबसता है क्‍योंकि इन्‍हें हर पांच वर्ष के पश्‍चात जनता के समक्ष जाना होता है और अपनी चारित्रिक विशेषताएं बतानी होती है, अपनी नि:स्‍वार्थता की मिसाल प्रस्‍तुत करनी होती है, जनता के काज के प्रति अपना समर्पण दिखाना होता है, धूप में पैदल चलना होता है, गांव की चौपाल की जमीन में बैठकर खाना होता है, किसी चौराहे पर झाडू लगाना होता है इत्‍यादि कार्य करने होते है। हमारे देश की भोली जनता जो अभी भी गांवों में रहती है, राजनेताओं के इस कृत्‍य को उनके चरित्र में आया स्‍थाई परिवर्तन मान लेती है और उन्‍हें ही चुनकर वापस संसद भेज देती है। संसद पहुंचते ही नेता हमारे माया के वशीभूत हो जाते है, उनके ज्ञान का लोप हो जाता है, वे अज्ञान के अंधकार में खो जाते है और उनके स्‍वार्थ चक्षु प्रकाशमान हो जाते है तथा देश की आम जनता को, उनके जीवन स्‍तर को भूल जाते है तथा चुनाव में बाहए गए पसीने को ब्‍याज सहित वापस लेने में पूरे तन-मन-धन से जुट जाते है। हमारे कुछ मंत्री अभी पांच सितारा होटल में निवास कर रहे थे। बजट घाटा कुछ डीजीपी 6.8 प्रतिशत पहुंचने के बाद यकायक इन्‍हें याद आया कि यह कर्म तो ठीक नहीं है। इन नेताओं को शायद याद ही न रहा हो कि वे जिन होटलों में रह रहे थे वे पंचसितारा होटल थे ही नहीं क्‍योंकि जनता की भलाई से इन्‍हें फुर्सत तो मिलती नहीं। नेताओं की इस करतूत को छिपाने के लिए हमारे कुछ राजनेताओं ने जनता को कम खर्च का पाठ पढ़ाने का सोचा। उन्‍होंने इकनॉमी क्‍लास में यात्री करनी शुरू कर दी। जो पैसा इस यात्रा से बचा, उससे अधिक उसके प्रचार पर खर्च कर दिया। इसे कहते है एक तीर से दो शिकार करना। वो अलग बात है कि उनके इस मितव्‍ययिता यात्रा से कितनों की फ्लाइट छूट गई। कितनों को पुलिस ने अपमानित किया। कितना मानवाधिकारों का हनन हुआ यह अलग था। फ्लाइट में मंत्री जी सबके साथ बैठे है, सब चुप है। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। आई बी के लोग जो मंत्री जी के साथ थे। कुछ भी बोलने पर पता नहीं क्‍या डी कोड कर लें आई बी वाले। पूरी यात्रा में सन्‍नाटा था। मंत्री जी के सुरक्षा गार्ड लोगों को सामने देखने, बातचीत न करने, टायलट का उपयोग न करने की सख्‍त हिदायत दी थी तथा मंत्री जी के समीपस्‍थ बैठे यात्रियों से ऐसे असुविधाजनक प्रश्‍न पूछ रहे थे कि सारे यात्री अपने को चोर समझ रहे थे तथा भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि कब मंत्री जी की यह मितव्‍ययिता यात्री पूरी हो और हम लोगों की जान छूटें। साथ बैठे यात्रियों को ऐसा लग रहा था कि जैसे कि वे यात्रा नहीं कर रहे थे बल्‍कि इंट्रोगेशन के लिए कही ले जाए जा रहे हों। बाहर निकलने पर बहुत से यात्री इस सत्‍संग से अपनी सुध बुध खो बैठे थे। कुछ और मंत्रियों की मितव्‍ययिता की गाथाएं मीडिया में आ रही है। नेताओं के चरित्र उज्‍जवल हो रहे है और आम जनता उसी मितव्‍ययिता का पालन करती हुई दाल भी नहीं खा पा रही है। गांव में बैठा किसान नेताजी के इस आचरण पर उन्‍हें अपना मत देने के लिए पुन: आतुर है लेकिन याद रहे कि ये पब्‍लिक है सब जानती है।


विनोद राय
दशहरे की शुभकामना के साथ। (लेखक अवकाश पर है अक्‍टूबर में मिलेंगे)

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

परिवर्तन

सितंबर का महीना आ गया है। वर्षा ऋतु अपने अंतिम चरण में है। मौसम में नमी आ गई है। यह नमी हमारे मन और मस्तिष्‍क को भी भा रही है। मन को अच्‍छा लग रहा है। मन उदात्‍त हो रहा है। मन कुछ करने को चाह रहा है। मन आगे बढ़कर कुछ करना चाहता है। मन प्रचंड गर्मी की ताप से तप्‍त था। इसकी वजह से कुछ भी रूच नहीं रहा था। जब खुद का मन ठीन न हो तो व्‍यक्ति दूसरों को क्‍या सहयोग देगा। पर सितंबर माह के आगमन से ही परिवर्तन की बयार बहना शुरू हो जाती है। मन को भी अच्‍छा लगने लगता है। वर्षा ऋतु से नहाई प्रकृति नवीन दिख रही है, पौधों के पत्‍ते स्‍वच्‍छ हो गए है। पौधे पुष्पित हो गए है। वे वातावरण में अपनी महक बिखरने के लिए आतुर प्रतीत होते है। पक्षी भी डाल-डाल, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष बड़ी तत्‍परता से उड़ान भर रहे है। उनकी आवाजें वायुमंडल में मधुरता फैला रही है। सुबह-शाम हवा में हल्‍की ठंड घुली हुई महसूस होने लगी है। सुबह सुहावना होने लगा है। भोर में उठने की अब इच्‍छा नहीं होती है। सुबह होने तक निद्रा की देवी का साथ देने की इच्‍छा होती है। पार्कों, मैदानों में पड़ी ओस के कण नयनों को सुखद लगते हैं तथा मन में त्‍याग की भावना जगाते हैं क्‍योंकि जो त्‍यागता है वही मोती की भांति चमकता है। दिन में सूर्य की गर्मी मध्‍यम होने लगी है। दिन में सूर्यदेव का साथ मन को अरूचिकर नहीं लग रहा है। दिन में भी बाहर रहने की इच्‍छा हो रही है। गर्मी का प्रभाव कम होते ही बाहर की वस्‍तुएं भी अच्‍छी लगने लगी है। उनके प्रति एक लगाव पैदा हो रहा है। वे हमें आमंत्रित करती प्रतीत होती है। इसी तरह सायंकाल में उमस से राहत मिली है। पसीने का साथ छूट गया है। थकान से निजात मिली है। शाम की सुगंध महसूस की जा सकती है। पूरे वातावरण में फूलों की गंध व्‍याप्‍त है। यह गंध हमें घर वापस नहीं जाने देना चाहती है। रातभर विचरण की इच्‍छा हो रही है। गर्मी की कमी से बाहर के व्‍यक्ति व वस्‍तुएं भी तामसिक की जगह सात्विक दिखाई दे रही है। सत्‍य प्रतीत हो रही है, सत्‍य प्रतीत होने से सुंदर दिख रही है। कल्‍याणमयी हो गई है। उनकी सुंदरता मेरे मन को लुभा रही है। मुझे निमंत्रित कर रही है। मुझे अपना बना रही है। उम्‍मीद है कि प्रकृति का यह ऋतु परिवर्तन आपमें भी ऐसे मनोभाव उत्‍पन्‍न कर रहा होगा। आइए मिलजुलकर इस परिवर्तन का स्‍वागत करें। आह्लादित हो। इस परिवर्तन में खुद को भी परिवर्तित कर दें।


विनोद राय

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

दु:ख में सुमिरन सब करे

दिनांक 2 सितंबर, 2009 को सुबह-सुबह जब आंध्र प्रदेश के मुख्‍यमंत्री श्री राजशेखर रेड्डी का हेलीकॉप्‍टर सुबह 9:30 बजे से एटीसी के रडार से गायब हो गया और पूरे दिन राज्‍य सरकार और केंद्र सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद जब मुख्‍यमंत्री के हेलीकॉप्‍टर का कुछ भी पता नहीं चला तो शाम होते होते लोगों को दुश्‍चिंताओं ने घेर लिया तथा लोगों ने मुख्‍यमंत्री महोदय के सकुशल होने के लिए प्रार्थना करनी शुरू कर दी। यह प्रार्थना केवल आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ता नहीं कर रहे थे बल्‍कि मुख्‍यमंत्री की सलामती के लिए प्रार्थना करने वालों में हिंदू, मुस्‍लिम, सिख, ईसाई सहित सभी संप्रदायों व वर्गों के लोग शामिल थे। सभी एक ही स्‍थल में मौजूद होकर अपनी-अपनी तरफ से अपने इष्‍ट से रेड्डी जी के लिए प्रार्थना कर रहे थे। पहले तो यह देखकर अच्‍छा लगा कि सब धर्म के लोग एक ही स्‍थान पर एक ही काज के लिए एक साथ प्रार्थना कर रहे है। प्रार्थना कर रहे किसी भी समुदाय के व्‍यक्‍ति के लिए मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारा और चर्च की आवश्‍यकता नहीं थी। तो प्रश्‍न यह उठता है कि यदि सभी का लक्ष्‍य एक है, सभी के ईश एक है तो फिर मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारों, चर्च की जरूरत ही क्‍या है। दूसरी बात क्‍या केवल दु:ख पड़ने पर ही हम एक साथ एक कार्य के लिए इकट्ठे हो सकते है अन्‍यथा इतना अहं भरा है हममें कि सामान्‍य परिस्‍थितियों में हम सब इकट्ठे नहीं हो सकते है। यदि सामान्‍य परिस्‍थितियों में इकट्ठे होते भी है तो इसके लिए मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारा और चर्च का होना आवश्‍यक है। विचारणीय बात यह है कि दु:ख पड़ने पर तो सबका एक होना मानव का स्‍वभाव है परंतु यदि हममें सच्‍चे अर्थों में मानवीय मूल्‍यों का विकास करना है तो इसके लिए सभी धर्मों के लोगों को सुख में भी आपसी भेदभाव भूलकर एक दूसरे के साथ मिलजुलकर रहना होगा अन्‍यथा दु:ख में एक होना तो महज एक तात्‍कालिक एकता होगी। अत: सुख में एकता का प्रदर्शन करना ही वास्‍तविक और स्‍थाई एकता है इसलिए दु:ख से अधिक सुख में साथ-साथ सुमिरण करने की आवश्‍यकता है। जिससे सबका भला हो और सब साथ-साथ रहें।
जरा सोचे, विचारे फिर व्‍यवहार में लावें।
दिवंगत माननीय मुख्‍यमंत्री जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।




विनोद राय

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

परीक्षा का विकल्‍प

परीक्षा का नाम सुनते ही हर कोई सावधान हो जाता है चाहे वह बडा हो या छोटा, बालक हो या युवा, अधेड हो या बुजुर्ग, सबके ऊपर परीक्षा एक जैसा प्रभाव दिखाती है। परीक्षा कोई भी हो, चाहे वह पढाई की परीक्षा हो, नौकरी की परीक्षा हो, चाहे वह कोई अन्‍य परीक्षा हो, परीक्षा का नाम ही काफी है व्‍यक्‍ति को सचेत करने के लिए। परंतु सरकार द्वारा यह घोषणा किया जाना कि अब से दसवीं की परीक्षा अनिवार्य नहीं होगी, पूरे देश के लाखों बच्‍चेां व उनके अभिभावकों को थेाडी राहत मिलेगी। ऐसा नहीं है कि परीक्षा नहीं होनी चाहिए अथवा परीक्षा बुरी होती है, लेकिन परीक्षा ऐसी भी नहीं होनी चाहिए कि बच्‍चे के पीछे पूरा परिवार सब कुछ त्‍यागकर लग जाए। मां बाप सोते जागते बच्‍चे से एक ही रट लगाए रखते हैं कि उसे परीक्षा में अच्‍छा करना है, परीक्षा में सर्वश्रेष्‍ठ अंक प्राप्‍त करना है इत्‍यादि। इस तरह का मानसिक दबाव आए दिन किशोर मन को ठेस पहुचाता है और वे बिना सोचे समझे कुछ ऐसे कदम उठा लेते है जिसके कारण माता पिता पूरे जीवन पश्चाताप करते है।
अब जरा गौर करें दसवीं के छात्र के मानसिक व शारीरिक स्‍थिति पर। 14 वर्ष के बच्‍चे से समाज ने क्‍या अपेक्षा कर रखी है। ये दिन उसके खेलने, मुक्‍त विचरण के होते हैं पर हमने तेा कक्षा एक से ही उसे शिक्षा की बेडियों में जकड़ रखा है कि वह अपना बचपन ही भूल जाता है। हमारा बच्‍चा कक्षा एक में पढने गया नहीं कि हमें उसे यह बनाना है, हमें उसे वह बनाना है, निरंतर जाप करना शुरू कर देते हैं। बच्‍चा जो अभी बचपन से निकल शैशवावस्‍था में आता है कि आकाक्षाएं और भी बढ जाती है और हम उसे एक डाक्‍टर, इंजीनियर, आइटी विशेषज्ञ बनाने की सोचने लगते हैं और चारों पहर यही रट लगाए रहते हैं। माना कि बच्‍चों को प्रारंभ से ही पढने की आदत डालनी चाहिए उन्‍हें अनुशासित रखना चाहिए, उन्‍हें पढने के लिए विशेष ध्‍यान देना चाहिए जिससे आगे चलकर वे अपना जीवनयापन अच्‍छी तरह से कर सके, वे आत्‍मनिर्भर बने। इसी को ध्‍यान में रखकर हम अपने बच्‍चों को केवल पढने व केवल पढने पर जोर देते है (सिवाय कुछ धनाढ्य लोगो के जिनकी संतान को पढने या न पढने की सहूलियत मिली हुई है ) । महानगरों के अभिभावक तो और भी प्रभावी तरीके से बच्‍चों को पढाई करने को कहते हैं। निसंदेह उनका यह प्रभाव रंग दिखाता है और अधिकांश बच्‍चे सफल होते है परंतु तस्‍वीर का यह एक पहलू है। पूरा अखबार केवल कुछ ही बच्‍चों के बारे में बताता है जिन्‍होने अच्‍छे अंक से परीक्षा पास की है । इतने अच्‍छे स्‍कूल, उतने ही अच्‍छे अध्‍यापक और इतने ही अच्‍छे अभिभावकों के होने के बावजूद क्‍या देश का कोई स्‍कूल यह दावा कर सकता है कि उसके सारे बच्‍चों ने परीक्षा में एकसमान अंक प्राप्‍त किया है। ऐसा न हुआ है न कभी होगा। कारण सभी बच्‍चों की क्षमताएं अलग अलग हैं। कोई तीव्र बुद्धि का हो सकता है, तो कोई मध्‍यम बुद्धिवाला, तो कोई औसत समझ वाला, तो कोई कुसाग्र बुद्धि वाला। ऐसे में अभिभावकों और अध्‍यापकों द्वारा बच्‍चों से परीक्षा में अच्‍छा करने का जो मानसिक दबाव होता है वह बच्‍चों के लिए ठीक नहीं है। यह भी गौर करने की बात है कि विेदशी भी भारतीय शिक्षा पद्धति का लोहा मानते हैं परंतु इतने होनहार छात्रों के होते हुए विश्‍व की विभिन्‍न खोजों, अविष्‍कारों में भारत का क्‍या योगदान है यह सब को पता है और पूरा संसार भी इसे जानता है। ऐसे में परीक्षा के हौवे को 2 वर्षों के लिए टालकर मानव संसाधन मंत्री जी ने एक सराहनीय कार्य किया है। उनके इस प्रयास से बच्‍चों के कोमल मन को तैयारी करने का अतिरिक्‍त समय मिल जाएगा तथा उनमें परिपक्‍वता भी आ जाएगी वे अधिक समझदार व गंभीर हो जाएगे । वे अपने आपको परीक्षा के लिए मानसिक रूप से तैयार कर पावेंगे। हॉं, दसवीं परीक्षा को वैकल्‍पिक बनाने से कोचिंग संस्‍थानों को हानि उठानी पड़ सकती है और कुछ अध्‍यापक अपने अध्‍यापन कार्य में शिथिल हो सकते हैं। इस हानि के बदले बच्‍चों को जो राहत मिलेगी, उन्‍हें जो सुकून मिलेगा वह अमूल्‍य व काल्‍पनातीत होगा। वे इस समय का उपयोग वेा पूरी तन्‍मयता से, बिना किसी भय या दबाव के भावी परीक्षा की तैयारी में लगाएगे और उसमें सफल होकर यह सिद्ध करेंगे कि दसवीं की परीक्षा केा वैकल्‍पिक बनाया जाना उनके वरिष्‍ठों द्वारा अपनी भावी पीढी के हित में उठाया गया एक सार्थक और लाभकारी कदम था ।

विनोद राय

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

बड़ी मछली का भ्रष्‍टाचार

इस देश के ईमानदार नागरिकों को तब कितना अच्‍छा लगता है जब शीर्ष पर बैठा हुआ जिम्‍म्‍ेादार व्‍यक्‍ति देश में व्‍याप्‍त्‍ा भ्रष्‍टाचार को सख्‍ती से निपटने की बात करता है। यह कथन तब और भी महत्‍वपूर्ण हो जाता है जब भ्रष्‍टाचार के मामले में बडे लोगों पर कार्रवाई की बात की जाती है। ऐसा सुनकर न केवल अच्‍छा लगता है बल्‍कि एक आशा की किरण भी दिखाई देती है कि कम से कम कोई तो इस बात को सोचता है और समझता है कि भ्रष्‍टाचार के मामले में बडे लोगों पर कार्रवाई होती नहीं दिखती है। अवसर विशेष पर कहने तो प्रधानमंत्री जी ने बहुत बडी बात कह दी पर क्‍या इस तरह के बयान सीबीआई, एंटी करप्‍शन ब्‍यूरो के सम्‍मेलन में ही कही जा सकती है । क्‍या इससे यह अर्थ नहीं निकलता है कि भ्रष्‍टाचार के मामलेों में बडे बच निकले हैं, जबकि उन्‍हें पकडने, रोकने के लिए भारत सरकार की कई एजेंसिया कार्यरत हैं। यह भी गौर करने योग्‍य होगा कि पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल के दौरान जब भी बडी मछली पकडी गई तो उस पर क्‍या कार्रवाई हुई। सबसे स्‍मरणीय उदाहरण मुलायम सिंह यादव, श्री लालू प्रसाद यादव, मायावती और सुखराम जी के हैं। बडे रसूख व पहुंच रखने वाले इन व्‍यक्‍तियों पर अब तक क्‍या कारवाई की गई यह सब जानते हैं। बडो पर तो बडे ही कार्रवाई करेंगे, बिना बडो के सहयोग व समर्थन से बडो पर कौन कार्रवाई करेगा या कार्रवाई करने की हिम्‍मत जुटा पावेगा। बडे लोगो को केवल बडी बाते ही नहीं बोलनी हैं बल्‍कि इस कार्य में लगे कार्मिकों का मनोबल भी बढाना है और उनका मनोबल तभी बढेगा जब इस कार्य के पक्ष में बडे लोगों का अंदर और बाहर दोनो रूपों में समान समर्थन मिलेगा। बडो पर कार्रवाई न होने की वजह से बहुत नागरिक भ्रष्‍टाचार की तरफ आकर्षित होते है उनको पता है कार्रवाई तो होनी नहीं है, यदि होनी भी है कि इतना समय लग जाएगा कि इसकी गंभीरता जाती रहेगी। भ्रष्‍टाचार के मामलों में सरकार द्वारा त्‍वरित कार्रवाई न करने और न्‍यायपालिका द्वारा ऐसे मामलो को निपटाने में लिया जाने वाला असाधारण समय इस मर्ज को लाइलाज बना रहा है। आज भ्रष्‍ट कौन नहीं है डाक्‍टर से लेकर इंजीनियर तक, नेता से लेकर अभिनेता तक, शिक्षक से लेकर प्रशिक्षक तक, व्‍यापारी से लेकर ‍नौकरशाह तक सब भ्रष्‍टाचार से लिप्‍त हैं। भ्रष्‍टाचार के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं और जो नहीं है वे अवसर की ताक में हैं। इस मामले में सबका चरित्र एक जैसा हो गया है अथवा हम कहे कि भ्रष्‍टाचार करना हमारा अखिल भारतीय चरित्र हो गया है तो कोई अतिशियोक्‍ति नहीं होगी। ऐसे में केवल कहने से, दम भरने से कार्य नहीं होगा। कथनी को करनी में बदलना होगा। बदलाव के लिए दृढ इच्‍छा शक्‍ति दिखानी होगी। कानून की नजरों में सबके साथ एक जैसा व्‍यवहार करना होगा। बडो को अपने से भ्रष्‍टाचार को न केवल मुक्‍त रखना है बल्‍कि भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लडी जाने वाली जंग का नेतृत्‍व भी करना है तभी बात बनेगी, स्‍थिति सुधरेगी। अन्‍यथा इस तरह के वक्‍तव्‍य महज रसम अदायगी का कार्य करेगे तथा ये कर्णप्रिय लग सकते हैं पर ह्रदयप्रिय कभी नहीं और हम भ्रष्‍टाचार के दलदल से बाहर निकलने में कभी भी कामयाब नहीं होंगे। जरा सोचे, विचारे फिर व्‍यवहार करें।
विनोद राय

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

जिन्‍ना का जिन्‍न

यह सच है कि जिन्‍ना ही मुस्‍लिमों के लिए अलग राष्‍ट्र बनाने के हिमायती थे क्‍योंकि उन्‍होंने हिंदु और मुसलमान को दो अलग-अलग कौम माना। यह भी सच है कि उन्‍हीं के कारण भारत का विभाजन हुआ और दोनों समुदायों को बंटवारे की त्रासदी झेलनी पड़ी। लाखों लोग बेघर हुए। हजारों माताओं के सिंदूर पुछ गए। लाखों बच्‍चे अनाथ हो गए। लाखों लोग विकास की दौड़ में पिछड़ गए। शारीरिक और मानसिक यातना का तो कहना ही क्‍या। जब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि जिन्‍ना मुसलमानों के हिमायती थे और उन्‍होंने अपनी सोच को अमली जामा भी पहना दिया तो फिर उनके बारे में पुस्‍तक लिखने से क्‍या फायदा। पुस्‍तक में जिन्‍ना की तारीफ से क्‍या होगा। क्‍या भुगते हुए कष्‍टों में कमी आ जाएगी अथवा भारतीय जनता जिन्‍ना को माफ कर देगी। असल में भाजपा मुद्दों की तलाशमें भटक रही है। भाजपा जिन मुद्दों पर कभी सत्‍ता में आई थी उनमें से एक भी पूरा करने में नाकामयाब रही। भाजपा को अहसास हो गया कि बिना मुस्‍लिम समर्थन के वे पुन: सत्‍ता सुख नहीं प्राप्‍त कर सकते है। भारत के मुसलमानों को तो भाजपा अपना नहीं बना सकी तो अब दूसरे देश और विशेष रूप से हमारे पड़ौसी देश के व्‍यक्‍ति को महिमामंडित करके भारतीय जनता पार्टी के लोग मुस्‍लिमों के बीच अपनी पार्टी की उदार छवि प्रस्‍तुत करने के लिए बेचैन दिख रहे है। इसके पीछे इनका ध्‍येय जो भी हो पर इतना तो तय है कि पार्टी मुस्‍लिमों में अपनी पैठ बनाने के लिए व्‍याकुल है और जिन्‍ना की प्रशंसा भी उसी दिशा में उठाया गया दूसरा कदम है। इसके पहले आडवाणी जी ने भी अपना असफल प्रयास किया था। लेखक से यह भी पूछा जा सकता है कि मरहूम जिन्‍ना की गुणगाथा से भारत को क्‍या लाभ मिलेगा। क्‍या भारत में ऐसे मुस्‍लिम नेताओं की कमी है जिन पर लिखने की जरूरत नहीं है या जिनके बारे में बहुसंख्‍यक समुदाय को और जानकारी दी जानी चाहिए। ऐसे देशभक्‍त मुस्‍लिमों के बारे में बताने की जरूरत है जिससे देश में अमन-चैन बढ़े, शांति का प्रसार हो, आपसी सद्भावना बढ़े। भाजपा को चाहिए कि यदि वह सचमुच चाहती है कि मुसलमान उसका समर्थन करें, उसके साथ चले, उसका साथ दे तो देश के अंदर रह रहे मुसलमानों को वह ध्‍यान दें। उन्‍हें अपना बनाने की कोशिश करें, उनकी प्रगति में भागीदार बने तभी मुसलमान उसकी तरफ मुखातिब होगा अन्‍यथा वह उससे उदासीन बना रहेगा।
दूसरी महत्‍वपूर्ण बात यह है कि जिन्‍ना अब हमारे नहीं है, वे पराये है। वे धर्मनिरपेक्ष थे अथवा पंथसापेक्ष इससे बहुत कुछ हल नहीं होने वाला है। फिर उनके बारे में लिखने से क्‍या फायदा। किसी को लिखना ही है तो अपने बारे में, अपने अपनेां के बारे में लिखें। अपनों के बारे में दी गई जानकारी लाभप्रद भी हो सकती है। मेरा तो अपना यही मत है कि जिन्‍ना एक धर्मनिरपेक्ष व्‍यक्‍ति नहीं थे। उनके व्‍यक्‍तित्‍व से जुड़ने का यह परिणाम है कि जो भी उनके समीपस्‍थ होना चाहता है या जो भी उनका यशगान करता है उसी की हानि हो जाती है। उसे ही पराभव मिलता है, अपयश प्राप्‍त होता है जो उनके व्‍यक्‍तित्‍व नकारात्‍मक गुणों को ही उद्घाघित करता है। ऐसे में हमारे विद्वान राजनेताओं विशेषकर भाजपा से जुड़े राजनेताओं को चाहिए कि वे जिन्‍ना मोह छोड़कर भारत की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्‍कृतिक एकता पर अपनी कलम चलाए जिससे भारत में रहने वाले सभी वर्गों का भला हो सके, सभी की प्रगति हो और पूरा देश खुशहाल हों। फिर उनके बारे में लिखने से क्‍या फायदा।


विनोद राय

सोमवार, 17 अगस्त 2009

कमीने

मैंने अभी अभी टीवी सेट आन किया है मुख्‍य समााचारों का जिक्र करते हुए उददघोषिका कहती है आज से कमीने मुंबई के सिनेमाघरों में । मैं सकते में आ गया। मैंने सोचाा कि इस तरह के उटपटांग नाम रखकर फिल्‍म निदेशक समाज को क्‍या संदेश देना चाहते हैं। क्‍या वे सस्‍ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं इस तरह के नाम रखके या एक खास तबके को सिनेमाघरों तक खींचना चाहते हैं। लेकि यह सब क्‍येां। केवल पैसा कमाने के लिए, केवल अपने लाभ के लिए, केवल अपना हित साधने के लिए, और यह सब भी देश के उस युवा वर्ग की कीमत पर जो हमारा वर्तमान हैं, जो ऊर्जावान हैं, जो कुछ भी करने कराने पर आमादा हैं, जो किसी भी कीमत पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। इतनी बडी जमात के प्रति ऐसा व्‍यवहार। क्‍या धनार्जन ही हमारा परम लक्ष्‍य है। देश समाज के प्रति कोई जवाब देही अथवा उत्‍तरदायित्‍व नहीं। युवावस्‍था जिसमें भावनाएं अपने किनारों को तोडने के लिए सदैव तत्‍पर रहती है, जिसमें कोई भी भाव स्‍थाई नहीं होता है, जिसमें अपने प्रेय को प्राप्‍त करने लिए उचित अनुचित साधन के इस्‍तेमाल का ध्‍यान नहीं होता है। उस वर्ग के साथ ऐसा खिलवाड़, बाजारवाद का इतना निरंकुश दुरूपयोग, स्‍वार्थवरता की पराकाष्ठा, उत्‍तरदायित्‍व हीनता का ऐसा प्रतिमान, संस्‍कारहीनता का ऐसा प्रदर्शन, ऐसा प्रयोग जो मूल को ही नष्‍ट करने पर आमादा हो। आप समाज के श्रेष्‍ठ सदस्‍य हैं, संसाधनों से परिपूर्ण हैं तो अपने संसाधनों का उपयोग लोगों के चारित्रिक पतन के लिए करेंगे। लाभ के बदले हानि पहुचाएगे। आपका देश के नौजवानों के प्रति कोई उत्‍तरदायित्‍व नहीं है। युवावस्‍था में मन बिलकुल तरल रहता है, आगे बढने के रास्‍ते ढूढता है। किसी भी मार्ग से आगे बढना चाहता है उसे इस तरह का प्रलोभन, खुला निमंत्रण, वह भी राम व कृष्‍ण, कबीर व तुलसी के देश में। अक्षम्‍य अपराध। युवा वर्ग संचित बल है। ऊर्जा का अक्षय स्रोत्र है । इसका हमारा समाज किस तरह उपयोग करना चाहता है, इसकी जिम्‍मेदारी हम पर है। मैं फिल्‍म सेंसर बोर्ड से अनुरोध करता हॅूं कि वे इस तरह के नाम वाली फिल्‍मों पर पाबंदी लगाएं। एक तो वैसे ही अच्‍छे नाम वाली फिल्‍में भी वे सब कुछ दिखा रही हैं जो समाज व देश तथा हमारे नौजवानों के लिए अच्‍छा नहीं है ऐसे में कमीने नाम ही मन में एक उन्‍माद पैदा कर रही है। नकारात्‍मक ऊर्जा का संचार कर रही है। ऐसे में सब यदि कमीने होने लगे तो हमारे चारित्रिक अनुशासन और उन आदर्शों का क्‍या होगा जिसके बल पर हमारा देश खड़ा है और जो हमारी अंतरनिहित मजबूती है। जरा सोचें, जरा मनन करें।

विनोद राय

बुधवार, 12 अगस्त 2009

हमारा राष्‍ट्रीय चरित्र

वैसे तो हम दावा करते है कि हमारी संस्‍कृति और सभ्‍यता दुनिया में सबसे अधिक प्राचीन है, सहिष्‍णुता हमारी रग-रग में रची बसी हुई है। दया हमारे जीवन का अभिन्‍न अंग है। परोपकार हमारे चिंतन में है। सर्वधर्मसमभाव को लेकर हम जीवन जीते है। वसुधैवकुटुम्‍बकम की हमारी परिकल्‍पना है। परहित में हमारा जीवन बीतता है और यही हम एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को अच्‍छाई का पाठ पढाते नहीं थकते है और सभी धर्मों के संत इसी अच्‍छाई का प्रचार करते नहीं अघाते है परंतु क्‍या वास्‍तव में हम वैसे है जैसा हम कहते है, हमारी कथनी और करनी क्‍या एक है। इन दोनों में क्‍या साम्‍य है। अब जरा गौर करें - इस वर्ष मानसून सामान्‍य नहीं है। वर्षा अल्‍प है। पूरा देश सूखे की चपेट में है। पूरे देश में सामान्‍य से भी कम वर्षा हो रही है। आने वाला समय कठिन है। कठिन है हमारे मजदूरों, किसानों, कमजोर वर्गों के परिवारों के लिए। कठिन है उन बेसहारा लोगों के लिए जिनका जीवन वर्षा से जुड़े कारोबार पर आश्रित है। जो कृषि पर आश्रित है। सरकार कहती है कि आने वाले दिनों में अनाज के दाम बढ सकते है। खाद्यान्‍य का भंडार पर्याप्‍त है सरकार के पास। देश में अनाज की कमी नहीं होगी। इस कठिन समय को सभी जानते हैं। इस कठिन समय में हमारे संस्‍कार सामने आने चाहिए। हमें अपनी सभ्‍यता प्रस्‍तुत करनी चाहिए। पर वास्‍तविकता क्‍या है। हर दाल के दाम बाजार में लगभग 80 प्रतिशत बढ गए हैं। दूध की कीमतें बढ गई है। सब्‍जी पहले ही आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई थी। चीनी के दाम धीरे धीरे परंतु हमारी कथित सभ्‍यता के प्रतिकूल बढ रहे है। तो क्‍या हम केवल स्‍वार्थ के वशीभूत होकर जीवन नहीं जी रहे है। क्‍या यही हमारी प्राचीन सभ्‍यता की बानगी है। इस कठिन समय में जब सभी को सबका साथ देने की जरूरत है, दुर्बलों को सबलो के सहारे की जरूरत है। ऐसे में आवश्‍यक चीजों के बढते हुए दाम क्‍या हमारे चरित्र की वास्‍तविक महानता को स्‍वयं ही बयां नहीं कर रहे है। जरा सोचे, विचारे और व्‍यवहार करे।

विनोद राय

बच्चा

आज सुबह जब मैं समाचार पत्र पढ रहा था तभी मेरी दृष्‍ट‍ि एक चित्र पर गई। चित्र पर गई दृष्‍ट‍ि चित्रित हो गई। वह ढीठ होकर रूक गई और आगे बढ़ने से मना कर दी। चित्र एक छोटे बच्‍चे का था। करीब एक वर्ष के आसपास उसकी उम्र होगी। वह एक महिला व एक पुरुष के बीच में स्थित था। वह बच्‍चा था। वह कोमल दीख रहा था। पूरा शरीर उसका रूई की तरह था। उसे पाने की इच्‍छा हो रही थी। उसे अपने पास बैठाने की इच्‍छा हो रही थी। उसके साथ रहने की इच्‍छा हो रही थी, उसके साथ खेलने की इच्‍छा हो रही थी। वह प्रसन्‍न दीख रहा था, उसके मुख पर आभा थी, विभा थी, निश्‍छलता थी। वह सत्‍य था, दीप्‍त था, आलोकित था, प्रकाशित था। वह पूर्ण था। मुग्‍ध करने वाला था। वह मुझे प्रसन्‍नता दे रहा था। उसे देखकर मुझे सुख मिल रहा था, मन को चैन आ रहा था, शांति मिल रही थी। मैं उस पर मोहित था। मुझे ध्‍यान आया कि उसे आखिर हम बच्‍चा कहते क्‍यो है। बहुत सोचने पर मन ने कहा कि बच्‍चा तो इसलिए कहते है क्‍योंकि वह बचा है। बचा है लोभ से, मोह से, क्रोध से, लालच से, छल से, कपट से, ईर्ष्‍या व द्वेष से, झूठ और फरेब से इसीलिए तो वह बच्‍चा है।

विनोद राय

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

सत्‍संग

सत का संग, सज्‍जनों का संग को सत्‍संग कहते है। कहते है कि सन्‍मार्ग पर चलने के लिए सत्‍संग जरूरी है। व्‍यक्‍ति जैसे जैसे बड़ा होता है वह जीवन बिताने के लिए अपना मार्ग /तरीका चुनता है। जीवन जीने के तरीके विभिन्‍न हो सकते हैं पर सब का लक्ष्‍य सुखमय जीवन बिताना है परंतु क्‍या सुमार्ग पर चले बिना यह संभव होगा। क्‍या बबूल का वृक्ष रोप कर आप उससे आम के फल प्राप्‍त करने की इच्‍छा कर सकते है। ठीक उसी तरह बिना सत्‍संग के आप सफल जीवन नही जी सकते है। रामचरित मानस में इसकी महिमा का कुछ इस तरह से वर्णन किया गया है।
'बिनु सत्‍संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई'

गोस्‍वामी जी कहते है कि अच्‍छे बुरे का विवेक ही सत्‍संग से आता है परंतु इसके लिए प्रभु की कृपा होनी जरूरी है। अब प्रभु की कृपा कैसे प्राप्‍त होगी उसके लिए व्‍यक्‍ति को क्‍या करना होगा। प्रभु की कृपा प्राप्‍त करने के लिए सबसे पहला गुण व्‍यक्‍ति को विनयी होना चाहिए, शीलवान होना चाहिए
क्‍योंकि तुलसीदास जी ने कहा कि प्रभु को 'मोहि कपट छल छिद्र न भावा' । ऐसे लोग नापसंद हैं जो कपटी हैं, छलिया है, दूसरों का दोष निकालते हैं ऐसे व्‍यक्‍ति प्रभु के कृपा पात्र नहीं हैं। फिर कैसे लोग प्रभु की कृपा का सुख प्राप्‍त कर सकते है तुलसीदास जी कहते है

'अस विवेक जब देई विद्याता, तबतजि दोष गुनहि मनुराता'

ईश्‍वर केवल सुपात्रो पर अपनी कृपा बरसाते है उनकी कृपा से ही विवेक जागृत होता है तभी मनुष्‍य अवगुणों को छोडकर गुणों की तरफ आकृष्‍ट होता है। गुणों से उसे लगााव हो जाता है।गुण ही उसे अच्‍छे लगने लगते हैं। गुणी ही उसके प्रिय हो जाते है। परंतु ऐसा तभी हो सकता है जब आप मन से, कर्म से, वचन से सत्‍यार्थी होंगे। सत्‍य के प्रति आपकी रूचि होने पर ही आप सत्‍संग की तरफ प्रवृत्‍त होगें। जिसका जीवन सत्‍संग से युक्‍त है वही सुखी है, वही सफल है, वही सहिष्‍णु है, वही सरल है। अत: सत्‍संग करें जीवन की बाधाएं, अभाव आप कम हो जाएंगे और आप समभाव से जीवन यापन कर सकेंगे।


विनोद राय

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

प्राणों से अधिक प्‍यारी कुर्सी

लाखों वर्ष पहले हमारे ऋषि मुनि कह गए थे कि यह संसार असारवान है। यहां कुछ भी स्‍थाई नहीं है, सब कुछ नश्‍वर है, केवल आत्‍मा ही अजर और अमर है। ऐसे में प्राणों से भी अधिक प्‍यार कुर्सी को देकर हमारे एक नेता ने एक नई अनुभूति पैदा कर दी है। एक क्रांति ला दी है। लोग रोमांचित है, आह्ललादित है, गर्व से भरे हुए है। इस नश्‍वर संसार में लोगों को कुछ तो अनश्‍वर दिलाई पड़ा। करोंड़ों वर्षों की ऋषि-मुनियों की तपस्‍या आज झूठी हो गई। हम कलियुग में है। कलियुग के अपने मानदण्‍ड है, हम नए प्रतिमान स्‍थापित करेंगे। तुलसीदास जी को फिर से सोचना होगा कि "प्राण जाय पर वचन न जाय" कितना ठीक है। हमने कुर्सी के महत्‍व को पहचाना है तथा इसे सार्वजनिक रूप से स्‍वीकार किया है। हमारा सारा जीवन इसी कुर्सी के लिए ही तो समर्पित है। कुर्सी ही अजर, अमर और सत्‍य है बाकी बाकी सब असत्‍य और छलावा है। शास्‍त्र भी कहता है कि "महाजनों येन गता स: पन्‍था" बड़े लोग जिस मार्ग पर चले, वही रास्‍ता है, वही सुमार्ग है, वही सन्‍मार्ग है। हमें बड़ों के द्वारा दिखाए रास्‍तों पर चलना चाहिए। ऐसे में बूटा सिंह जी द्वारा दिया गया बयान हमारे समाज के लिए कितना प्रेरणास्‍पद होगा। जिन्‍हें कुर्सी का लालच नहीं, उन्‍हें लज्‍जित होना चाहिए। उन्‍हें अपनी अज्ञानता पर शर्म आना चाहिए। उन्‍हें समझ लेना चाहिए कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी रह गई थी। वे संस्‍कारवान नहीं है। उन्‍हें विरासत में कुछ नहीं मिला है। वे देश के विकास में क्‍या योगदान दे पाएंगे जो खुद का विकास नहीं कर सके। अब तक वे अंधकार में जीवन जी रहे थे। उन्‍हें कोई ज्ञान नहीं है। बूटा सिंह जी केवल अकेले ऐसे आधुनिक भारतीय मनीषी नहीं है जिन्‍हें कुर्सी प्रिय है। ये तो उसी सशक्‍त माला के एक दीप्‍त मोती है। ऐसे अनेकों मनीषियों के बारे में हमारी जानकारी अल्‍प है। यह खोज का विषय है, अनुसंधान का विषय है, साथ ही चिंता की बात है कि ऐसे उत्‍तम पुरुषों के बारे में हमारी जानकारी कितनी सीमित है। उम्‍मीद है ऐसे प्रबल प्रकाशपुंज से करोड़़ों भारतीय लाभान्‍वित होंगे, उनका चिंतन प्रभावित होगा, परिमार्जित होगा, उनके जीवन से नैराश्‍य मिटेगा, उनके दु:ख दूर होंगे, उन्‍हें संसार मोहक व सारवान दिखाई देने लगेगा। वे संसार में निवृत न होकर प्रवृत होंगे, आने वाली पीढ़िया उन्‍हें प्रात:स्‍मरणीय के रूप में याद रखेगी। ऐसे कुर्सी प्रेमी, आत्‍मबलिदानी, देशभक्‍त नेता को सारे भारतवर्ष का कोटि-कोटि नमन व वंदन।



विनोद राय

सोमवार, 3 अगस्त 2009

ग़ज़ल

बदल देते वो अपने हमसफर हर बार चुटकी में
बदल जाती है ज्यों इस मुल्क की सरकार चुटकी में

जवानी हो रवानी हो दिलों में जब हमारे तो
बजे धड़कन में भी पाजेब की झन्कार चुटकी में

मुहब्बत से किसे है वास्ता इस दौर में सचमुच
ज़माने में है अब तो जिस्म की दरकार चुटकी में

कभी दे कर तो देखो गीतकारों को निज़ामत भी
ख़तम हो जाएगी दो मुल्कों की तकरार चुटकी में

परिन्दों को ख़बर क्या नफ़रतों की सीमा रेखा का
कभी इस पार चुटकी में कभी उस पार चुटकी में

किसी फ़न का प्रदर्शन होता था बरसों की मेहनत से
बने हैं अब किसी भी क़िस्म के फनकार चुटकी में

है मुश्किल है ख़ुदा की बन्दगी में ख़ुद को पा लेना
मगर कहते हैं अब तो ख़ुद को ही अवतार चुटकी में

है इक अरसा लगा मुझको ग़ज़ल का फ़न समझने में
नमन करता हूँ उनको जो कहें अशआर चुटकी में

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

भारतीय कंपनियों के तिमाही नतीजे

लगभग सभी बड़ी कंपनियेां ने चालू वित्‍त वर्ष की पहली तिमाही के परिणाम घोषित कर दिए है। इन नतीजों से एक आशाजनक तस्‍वीर उभरकर सामने आती है। इन नतीजों से एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गई है कि भारतीय उद्योग जगत पर वैश्‍विक मंदी का उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ा जितना अन्‍य देशों पर। आईटी उद्योग की सभी बड़ी कंपनियों ने उम्‍मीद से बेहतर परिणाम दिए हैं। इन्‍फोसिस, टीसीएस सहित सभी कंपनियों का मुनाफा 20 प्रतिशत से अधिक का मुनाफा दर्ज किया है। कारण हमारी आईटी कंपनियों का कारोबार डालर में होता है। इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर क्षेत्र में निवेश की वजह से घरेलू बाजार में स्‍टील, सीमेंट की मांग बढ़ी है। इस कारण सीमेंट व स्‍टील कंपनियों ने भी शानदार वृद्धि दर्ज की है। एसीसी, ग्रासिम जैसी सीमेंट कंपनियों ने तो 50 प्रतिशत से भी अधिक लाभ दर्ज किया है। हांलाकि स्‍टील सेक्‍टर की दो बड़ी कंपनियां नामत: टाटा स्‍टील एवं सेल ने बिक्री के साथ साथ लाभ में भी कमी दर्ज की है। इससे यह पता चलता है कि रूकी हुई इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर संबंधी परियोजनाएं पुन: चल पड़ी है। सबसे अच्‍छे नतीजे हमारे सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने प्रस्‍तुत किए है। निजी बैंकों सहित सभी बैंकों ने 30-40 प्रतिशत लाभ दर्ज किया है। हांलाकि बढ़ता हुआ एनपीए चिंता का कारण हो सकता है। सरकार द्वारा ब्‍याज दरों में की गई कटौती की वजह से लोग ऋण लेने के इच्‍छुक है। प्रॉपर्टी बाजार में कीमतों में आई कमी की वजह से ग्राहक पुन: मकान खरीदने के लिए आगे आ रहे है। कच्‍चे तेल की स्‍थ्‍िार कीमतों के कारण सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनियां मुनाफे मे आ गई है। ऐसा उन पर सब्‍सिडी का बोझ कम होने के कारण हुआ है। इसके अतिरिक्‍त सरकार द्वारा उद्योग जगत को दिए गए 3 राहत पैकेज के प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं। बाजार में लिक्‍विडिटी की कमी नहीं है। निर्यात पुन: तेजी का रूख दर्शा रहा है। लगता है कि सब कुछ ठीक रहा तो सरकार द्वारा निर्धारित 9 प्रतिशत की जीडीपी दर हम प्राप्‍त करने में सफल होंगे। चिंता बजट घाटे को लेकर है जो जीडीपी का 6.8 प्रतिशत हो गया है। साथ ही चिंता सरकार की उधारी को लेकर है। हांलाकि सरकार की अपने उपक्रमों के विनिवेश के माध्‍यम से कुछ पूंजी जुटाने की योजना है। इस वर्ष मानसून कमजोर है। यदि मानसून की स्‍थिति यही बनी रहती है तो सरकार का खर्च बढ़ जाएगा अन्‍यथा इस वित्‍त वर्ष की चौथी तिमाही तक हम अर्थव्‍यवस्‍था को पटरी पर लाने में कामयाब होंगे।
विनोद राय

सोमवार, 27 जुलाई 2009

सच का सामना

जब से मैंने होश संभाला तथा स्‍कूल में पहली ही क्‍लास से टीचर ने सबसे पहले सच बोलने की शिक्षा दी। तब से अब तक सच बोलने, सच देखने, सच खोजने, सच का सामना करने की सीख कदम-कदम पर दी जाती रही है। परंतु "सच का सामना" नामक सीरियल के आते ही एक बवाल खड़ा हो गया। कोई भी "सच का सामना" करने को तैयार नहीं है। इसके विरोध में भिन्‍न भिन्‍न प्रकार के तर्क दिए जा रहे है। इन तर्कों में भी कुछ सच हो सकता है। हो सकता है पूछे गए प्रश्‍न मर्यादित न हो परंतु सारे प्रश्‍न तो ऐसे नहीं हो सकते है तथा इससे कार्यक्रम की प्रासंगिकता तो कम नहीं हो जाती है। परंतु सच का सामना करने से लोग घबराते क्‍यों है। शायद इसलिए कि हम झूठ में जीते हैं, सत्‍य तो बस उपदेश, विशेष रूप से पर उपदेश के लिए होता है। इस कार्यक्रम में बड़े लोगों को बुलाया जाता है जिन्‍हें अपने जीवन का सच सबको बताना होता है। इसी सच को उद्घाटित करने से वे लोग डर रहे है। डर तो हम इसलिए रहे है कि हम जितने बड़े है उतने ही बड़े झूठे भी है। अन्‍यथा विरोध के स्‍वर बड़े ही लोगों की तरफ से क्‍यूं उठते। हमारे देश में तो बड़ों तथा छोटों के सच अलग-अलग है। छोटे लोग तो सच का सामना करने को तैयार है क्‍योंकि वे तो सच्‍चे है परंतु उन्‍हें पग-2 पर झूठ का सामना करना पड़ता है। परंतु बड़े लोग इससे डर रहे है। डरने का कारण यह नहीं है कि उनका सच सामने जाएगा। उनके सच को जो सारा भारतवर्ष जानता है, पहचानता है। परंतु कहता नहीं है। उन्‍हें डर है कि अपनी जुबानी अपने सच को स्‍वीकार करने में उनकी अपूरणीय क्षति/ हानि हो सकती है। वैसे अच्‍छा होता कि बड़े लोग स्‍वयं इस कार्यक्रम में आते और अपने सच द्वारा जनता के बीच जो उनके प्रति भ्रम है, दुराव, दुराग्रह है, उसे ठीक करते, इससे जनता में एक सकारात्‍मक संदेश जाएगा, लोगों का बड़ों पर विश्‍वास बढ़ेगा, लोग उन पर भरोसा कर सकेंगे। अत: बड़े लोगों को चाहिए कि वे स्‍वत: इस कार्यक्रम का हिस्‍सा बनें और अपनी कथनी और करनी को आम जनता के बीच साबित करें। आखिर जीवनभर जनता को सच की सीख देने वाले हमारे बड़े लोगों को अपना सच साबित करने का इससे अच्‍छा मौका कब और कहां मिलेगा।

विनोद राय

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

भाजपा और मुसलमान

भाजपा महासचिव मुख्‍तार अब्‍बास नकवी ने कहा है कि मुसलमानों ने कमल को हराने के लिए अपना वोट कीचड़ में डाला। नकवी जी ऐसा क्‍यों कह रहे हैं, इसके पीछे क्‍या कारण है। भाजपा ने पहले 6 वर्षों तक शासन किया फिर पिछले पांच वर्ष विपक्ष में रही। विपक्ष में रहने पर पार्टी सत्‍ता में आने की तैयारी करती है और जो सत्‍ता में रहते हैं वे सत्ता में बने रहने के उपाय करते है। ऐसे में यह गंभीर चिंतन का विषय है कि भाजपा मुसलमानों को क्‍यों अपने साथ नहीं ले पाई अथवा मुसलमान भाजपा से क्‍यों नहीं जुड़ा और भाजपा ने पिछले ग्‍यारह वर्षों में मुसलमानों को अपने से जोड़ने के लिए क्‍या किया। अब यह महत्‍वपूर्ण है कि लोग किससे जुड़ना चाहते है। सर्वाधिक महत्‍व की बात है सुरक्षा। जहां व्‍यक्‍ति सुरक्षित महसूस करता है उसी से जुड़ता है। आपने महसूस किया होगा कि पशु, पक्षी, बच्‍चे भी उसी के पास जाना पसंद करते है जिनसे उन्‍हें अपनी सुरक्षा का कोई भय नहीं होता है। फिर मुस्‍लिम समुदाय तो एक जागरूक कौम है। भाजपा के साथ मुसलमान अपने आपको सुरक्षित नहीं समझता इसलिए वह नहीं जुड़ता है। एक तथ्‍य और गौर करने योग्‍य है कि सर्वाधिक कम पढ़े-लिखे लोग मुस्लिम समुदाय में ही है। भाजपा बुरी है अथवा अच्‍छी है इसका निर्णय वे अपने विवेक से न कर विश्‍वास का सहारा लेकर करते है। साथ ही भाजपा विरोधी दल मुस्‍लिमों में यह विश्‍वास पैदा करने में सफल हुए है कि भाजपा मुस्‍लिम विरोधी है। अब अगर मुस्‍लिम भाजपा से नहीं जुड़ते है तो गलती भाजपा की है। वे मुस्‍लिम मत चाहते है तो मुस्‍लिमों में अपने प्रति विश्‍‍वास क्‍यों नहीं पैदा करते है। यह विश्‍वास कहने से नहीं, करने से होगा, उनको महसूस कराने से होगा और जब मुस्‍लिम समुदाय को लगेगा कि आप सचमुच उनके हितैषी हो गए है, उनके लिए सकारात्‍मक है आप तो वे जरूर आपको गले लगाएंगे। अपना बनाएंगे, आपको आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। जरूरत है तो भाजपा को बड़ा बनने की, एकाकी चिंतन छोड़कर व्‍यापक चिंतन करने की, सबको साथ लेकर चलने की, बड़े का रोल निभाने की तभी मुस्‍लिम मतदाता उनसे जुड़ेगा अन्‍यथा मुस्‍लिम कभी भी कमल के पास नहीं आवेगा भले ही उसे कीचड़ में रहना पड़े। साथ ही यह कहना कि मुस्‍लिम भाजपा को नहीं समझ पाए है बिल्‍कुल गलत है। सत्‍य तो यह है कि भाजपा मुस्‍लिम को नहीं समझ पाई है।

विनोद राय

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

राजनीति को स्‍वच्‍छ छविवालों की दरकार


युवा कांग्रेस ने स्‍वच्छ छवि वालों को ही पार्टी में स्‍थान देने की बात कही है। यह ए‍क सकारात्‍मक कदम है। यदि ऐसा होता है तो यह राजनीति के लिए अच्‍छा होगा। आज किसी भी पढे लिखे व्‍यक्‍ति से पूछेगे कि राजनीति कैसी है तो वह तपाक से उत्‍तर देगा कि यह अच्‍छों का खेल नहीं है। यह अच्‍छों के लिए नहीं है। वैसे राजनीति बुरी नहीं होती है।राजनीति करने वाले बुरे होते हैं। राजनीति अर्थात राज करने की नीति, जनता पर शासन करने की नीति, यदि यह जनता की भलाई के लिए की जाती है तो उत्‍तम, परंतु यही राजनीति जब केवल अपने हितों को साधने, अपनी स्‍वार्थ सिद्धि करने, वर्ग विशेष को लाभांन्‍वित करने के लिए की जाती है तो यह राजनीति न होकर लाभनीति में परिवर्तित हो जाती है।
अब प्रश्‍न यह उठता है कि यदि स्‍वच्‍छ छवि वालों को मौका दिया जाएगा तो क्‍या स्‍वच्‍छ छवि वाले मौका लेना चाहेंगे। अभी आम चुनाव हुए, इसी से जुडा पिछले दिनों एक सर्वेक्षण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। इस बार करोडपति सांसदों की संख्‍या सर्वाधिक है। अर्थात करोडपति उम्‍मीदवार के चुनाव जीतने की संभावनाए बढ़ जाती है। धनाढ्य होना और श्रेष्‍ठ चरित्र रखना विरोधाभास है। हमारा अनुभव इस बारे में अच्‍छा नही है। स्‍वच्‍छ छवि वाले पूर्व चुनाव आयुक्‍त शेषन, शिवखेड़ा, मुंबई के चुनावों में खडी एक कारपोरेट जगत की हस्‍ती का क्‍या हस्र हुआ यह सब जानते है। फिर भी संसार आशा पर चल रहा है।
प्रश्‍न यह है कैसे लोग स्‍वच्‍छ छवि वाले होते हैं, क्‍या वे जो धनी है परंतु जिनके खिलाफ कोई मामले लंबित नहीं है या वे जो केवल पढे-लिखे है, सुलझे है, जिनके खिलाफ कोई मामला विचाराधीन नहीं है अथवा वे जो गरीब है और जिनका चरित्र अच्‍छा है। राजनीति के लिए धन चाहिए, व्‍यक्‍ति को साधन सम्‍पन्‍न होना चाहिए। जो धनवान है राजनीति में आते ही उसे और धनवान होने के अवसर दिखाई देते है, वह और सबल होना चाहता है, जो गरीब है वह धनवान होने के लिए राजनीति में आना चाहता है। राजनीति एक सेवा है और सेवा स्‍वार्थ से नहीं हो सकती है। कम से कम आज की राजनीति तो सेवा नहीं है क्‍योंकि एक बार जो व्‍यक्‍ति राजनीति के माध्‍यम से कोई पद प्राप्‍त कर लेता है तो वह उसे मृत्‍यु तक छोड़ना नहीं चाहता, उस पर बना रहना चाहता है। अगर किसी कारण से छोडना ही पडे तो अपनी विरासत वह अपने परिवार को दे जाता है।
अच्‍छा तो यह होता है यदि सभी दल ऐसे लोगों को आगे ले आते जो संयमी हों, जिनका आचरण श्रेष्‍ठ हो, जो विवेक के सहारे निर्णय लेते हो, जिनका चिंतन व्‍यापक हो, जिनका चित्‍त उदात्‍त हो, जिनमें अपने से बड़ों के प्रति आदर हो, छोटो के प्रति स्‍नेह हो, गरीबों के प्रति करूणा हो और दुष्‍टों के प्रति अरूचि हो, जो स्‍वार्थ से अधिक परमार्थ को महत्‍व देते हो, जिनमें दंभ न हो, जो विनयी हो, जो दूसरों का दुख समझे, जिन्‍हें यथार्थ बोध हो, जिन्‍हें यथार्थ प्रिय हो, अथार्थ जो सचमुच चरित्रवान हो, प्रतिभावान हो, केवल ऐसे लोग जब सब दलों में आएंगे तो सबका चिंतन समान होगा और धीरे धीरे मलिन छवि के लोगों से राजनीति दूर होती जाएगी और राजनीति में स्‍वच्‍छ छवि वालों का प्रवेश और अंतत राजनीति भी स्‍वच्‍छ हो जाएगी और राजनीति स्‍वच्‍छ होने पर अच्‍छे लोग स्‍वाभावत: राजनीति में आएंगे।
जरूरत है इस संबंध में किसी भी दल के पहल करने की, उस पर अमल करने की, अपनी कथनी और करनी एक करने की। इस तरह के किसी भी विचार का सदैव स्‍वागत है।

विनोद राय

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

हिंदी - विरोध की भाषा नहीं

संसद के इस सत्र के दौरान अब तक तीन बार ऐसा हो चुका है जब अंग्रेजी में जबाब दे रहे मंत्री महोदय को हिंदी में जबाब देने को कहा गया। तीनों बार मंत्री महोदय ने हिंदी में जबाब दिया तथा आगे पूछे गए प्रश्‍नों के उत्‍तर हिंदी में दिए। प्रश्‍न यह है क्‍या किसी व्‍यक्‍ति को किसी भाषा विशेष में जबाब देने को कहा जा सकता है अथवा भाषा विशेष बोलने के लिए कहां जा सकता है। नियमत: नहीं परंतु ऐसा होने के बावजूद सत्‍ता पक्ष ने सदस्‍यों के अनुरोध करने पर हिंदी में जबाब दिया। प्रश्‍न पूछने वालों का आग्रह था कि आप तो अच्‍छी हिंदी जानते हैं, आपकी हिंदी तो अच्‍छी है तो फिर जबाब अंग्रेजी में क्‍यों दे रहे है। बड़ा अच्‍छा हुआ कि हमारे मंत्रियों ने तुरंत हिंदी में उत्‍तर दे दिया तथा भाषा के मामले में लचीला रूख दिखाया। इससे यह भी पता चलता है कि हमारे मंत्रीगण राजभाषा को कितना सम्‍मान देते है। जब आप किसी भाषा को सम्‍मान देते है तो उससे जुड़े लोगों का भी आप सम्‍मान करते है, उस भाषाभाषी क्षेत्र का भी आप सम्‍मान करते है। वैसे भी जब एक बार सरकार बन जाती है तो वह पूरे देश में शासन करने के लिए होती है। किसी क्षेत्र विशेष, भाषा विशेष अथवा वर्ग विशेष की नहीं रह जाती है। और सरकार का कार्य है सब को जोड़ना, सबको साथ लेकर चलना जिससे सब साथ-2 चले, सबमें साथ-2 चलने की समझ बढ़े।
यहां विशेष तौर पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो हिंदी के हितैषी है वे किसी को हिंदी बोलने के लिए मजबूर न करें तभी हिंदी का भला होगा। किसी भाषा विशेष का विशेष आग्रह रखने पर विरोध के स्‍वर उठने लगते है क्‍योंकि पूर्वाग्रह से प्रेम नहीं घृणा की उत्‍पत्‍ति होती है, प्रेम जहां एक दूसरे को जोड़ता है वहीं घृणा विलगाव पैदा करता है, अलगाव को बढावा देता है, प्रेम जहां समीपता लाता है वही विरोध दूरी पैदा करता है अत: इस मामले में हिंदी भाषियों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी प्रचारकों से संयमपूर्ण आचरण की अपेक्षा है। आजादी के बाद से आज तक का हिंदी का सफर अपनी योग्‍यता से अधिक हुआ है सरकारी प्रयासों से नहीं। इस संबंध में यह याद दिलाना श्रेयष्‍कर होगा कि आज जिस भाषा का डंका पूरे विश्‍व में बज रहा है वहां पर फ्रांस का आधिपत्‍य होते ही वहां की राजभाषा फ्रेंच हो गई थी तब इंग्‍लैंड में भी अंग्रेजी को कुछ इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जैसे कि आज हिंदी को। अंग्रेजी को तीन सौ साल लगे थे इंग्‍लैंड की पुन: राजभाषा बनने में। हमारे देश को तो आजाद हुए अभी 62 वर्ष ही हुए है। अत: हिंदी प्रेमियों से अनुरोध है कि वे विरोध के माध्‍यम से हिंदी को आगे न बढ़ाने का प्रयास करें। जिन्‍हें कम जानकारी है उन्‍हें बताकर, हिंदीतर भाषियों को अपना बनाकर ही पूरे भारतवर्ष में हिंदी को स्‍वीकार कराया जा सकता है। अत: बेहतर होगा हिंदी प्रेमीजन सकारात्‍मक तरीके से राजभाषा का प्रचार करें, उसे आगे बढ़ाए तभी इच्‍छित परिणाम प्राप्‍त होगा।

विनोद राय

बुधवार, 15 जुलाई 2009

चिंता चिंतित न होने की

कहने को तो हम सब एक है, हम एकता के सूत्र में बंधे हुए है, एक दूसरे के प्रति संवेदनशील हैं परंतु क्‍या वास्‍तव में हम ऐसे ही है, शायद नहीं। तभी तो इतनी बड़ी-2 घटनाएं आए दिन घटती है जो हमारे मन को उद्वेलित कर देती है, परंतु कुछ दिन बाद हम उन्‍हें भूल जाते है और पुन: उसी कार्य को करने में संलग्‍न हो जाते हैं जिससे हमें अपार दुख मिलता है। हमारे आसपास कुछ भी हो जाए, कितना ही बड़ा नुकसान हो जाए, हम रूकते नहीं, हम चलते रहते हैं क्‍योंकि चलने का नाम ही जिंदगी है। पर क्‍या आपने कभी सोचा कि हमारे इस स्‍वभाव के कारण ही एक ही प्रकार की घटनाएं कुछ दिनों के अंतराल पर पुन: घटित होती है और हम केवल मूक दर्शक बने रहते है। हम केवल तभी चिंतित होते हैं जब वही विपत्‍ति हम पर पड़ती है। हमने कभी भी सामूहिक चिंता नहीं दिखाई। सामूहिक रूप से चिंतित नहीं हुए। क्‍योंकि हम प्रगतिशील है, प्रगतिशील आगे की सोचता है, प्रगतिशील रूकता नहीं है। नहीं, नहीं हम प्रगतिशील नहीं है। हम स्‍वार्थी हैं। हमें केवल अपने की चिंता है। केवल अपने अपनों की चिंता है। ‍परंतु व्‍यवस्‍था में सुधार तो तभी हो सकता है जब सभी को सबकी चिंता होगी। सबको चिंता तो तभी होगी जब सब में मानव मूल्‍य विकसित होंगे। जब मानव में मानव के प्रति प्रेम जागेगा, स्‍नेह जागेगा, एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को अपने समान समझेगा तभी सब सबकी चिंता करेंगे। कोई भी व्‍यक्‍ति ऐसा काम नहीं करेगा जिससे दूसरों को चिंता हो और इस तरह चिंतित करने वाली घटनाओं में स्‍वत: कमी आ जाएगी। अत: चिंता करें, अपने लिए नहीं बल्‍कि दूसरों के लिए तभी सब सुखी होंगे।
विनोद राय

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

सोमवार, 13 जुलाई 2009

मेट्रो-हादसा

मेट्रो गिरी
मजदूर मरे
नेता आए
ऑंसू बहाएं
अफसर आए
अफसोस जताए
सबको चिंता मेट्रो की
मेट्रो देश की शान
तरक्‍की की पहचान
इंसान तो
रोज पैदा होते है
इंसान कहां मरा
मरी तो इंसानियत है
मरा तो मजूदर है
जो रोज मरता है।
जो असमय
मरने के लिए ही
पैदा होता है।
विनोद राय

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

विचित्र स्‍थिति

कल सरकार ने महंगाई के आंकड़े जारी किए। मुद्रास्‍फीति की दर कम हो गई है। महंगाई नकारात्‍मक हो गई है। बड़ा अच्‍छा लगा। सोचा, शासन अच्‍छा चल रहा है। शासक का बाजार पर नियंत्रण है। व्‍यवस्‍था दुरूस्‍त है। सुशासन की कल्‍पना साकार हो रही है। यह आम आदमी के लिए अच्‍छा है। आम आदमी महंगाई की मार से बचा हुआ है। आज सुबह बाजार गया। सब्‍जी खरीदने। कल से दूने भाव पर सब्‍जी बिक रही थी। सब्‍जी के दाम मैंने दो बार पूछे। परंतु दुकानदार ने वही दाम बताए। मैंने सोचा कैसी विचित्र स्‍थिति है। सरकार कुछ कहती है, प्रचारित कुछ किया जाता है, होता कुछ और ही है, पाया कुछ और जाता है। वेतनभोगी होने पर जब मेरी यह स्‍थिति है तो दूसरों का क्‍या होता होगा जो दैनिक मजूदरी करके अपनी जीविका चलाते हैं। क्‍या हमारे जनप्रतिनिधि यह नहीं जानते। किसी ने उत्‍तर दिया - हमारे जनप्रतिनिधि देश की बड़ी समस्‍याओं पर चिंतन करते हैं अत: उन्‍हें इन छोटी बातों का ध्‍यान नहीं रहता है। हां, वोट पड़ने के एक महीने पहले तक वे इन छोटी बातों का विशेष ध्‍यान रखते है जिससे कि मतदाता इतना कमजोर न हो जाए कि मतदान केंद्र तक ही न जा सके।

विनोद राय

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

हिंदी का बढ़ता दायरा

हिंदी पूरे देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा जानी जाने वाली भाषा है। स्‍वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति तक हिंदी ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधे रखा। जहां भारतेंदु हरिशचन्‍द्र ने निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति को मूल कहकर भाषा के माध्‍यम से सब उन्‍नति की कल्‍पना की हे। महात्‍मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चन्‍द्र बोस, बंकित चन्‍द्र चटर्जी आदि जैसे देशभक्‍तों ने हिंदी के महत्‍व को रेखांकित किया है। स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के पश्‍चात की जनसंचार माध्‍यम, रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्रों, फिल्‍मों के माध्‍यम से राजभाषा हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है। परिणामस्‍वरूप दूरदर्शन द्वारा दिखाए गए रामायण, महाभारत, हम लोग, कौन बनेगा करोड़पति जैसे धारावाहिकों के माध्‍यम से हिंदी भारत के कोने-कोने में फैल गई। इन कार्यक्रमों के माध्‍यम से न केवल अन्‍य भाषाभाषियों में हिंदी सीखने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न हुई बल्‍कि भारतीय संस्‍कृति का भी प्रसार हुआ। मेरा जूता है जापानी गाना पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय है। उत्‍तर भारत से हिंदी में प्रकाशित दैनिक जागरण की पाठकों की संख्‍या देश में सर्वाधिक है। हिंदी का प्रसार बढ़ रहा है परंतु नियमों के सहारे नहीं अपितु अपने स्‍वयं के आधार पर। इसका उदाहरण है हमारे चैनल्‍स। जिनते भी चैनल अंग्रेजी में थे उनको अपना हिंदी चैनल भी चालू करना पड़ा। कारण हिंदी के दर्शकों की संख्या सर्वाधिक है। इसी तरह से जो भी पत्रिकाएं अंग्रेजी में निकलती थी वे भी अब हिंदी में प्रकाशित हो रही है चाहे वह इंडिया टुडे हो अथवा फेमिना।

हिंदी को अपनाने में असमर्थ लोग तरह-2 के बहाने बनाते है यथा शब्‍दों की कमी की बात कहते हैं परंतु हिंदी भाषा के प्रसार व हिंदी पाठकों की संख्‍या में निरंतर वृद्धि होने के कारण इकनामिक टाइम्‍स और बिजनेस स्‍टैण्‍डर्ड जैसे अंग्रेजी के अखबार भी आज हिंदी में प्रकाशित हो रहे है तथा इनके पाठकों की संख्‍या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कहने का मंतव्‍य यह है कि हिंदी हर क्षेत्र में मजबूती से अपने पांव पसार रही है। हिंदी सक्षम है तभी तो आगे बढ़ रही है, स्‍वीकारी जा रही है। आज से कुछ वर्ष पहले हमारे वरिष्‍ठ नौकरशाह चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक, डॉक्‍टरों को केवल अंग्रेजी में बोलते सुना जा सकता था परंतु आज परिस्‍थिति बदल गई है। इन सभी को आप धाराप्रवाह हिंदी बोलते सुन सकते है। राजनीतिक दल भी हिंदी को महत्‍व दे रहे है। कारण सबसे बड़ा भाषाभाषी समूह हिंदी का है। हिंदीतर नेता भी हिंदी सीख रहे हैं। कारण पूरे देश में लोकप्रिय, स्‍वीकार्य होने के लिए हिंदी ज्ञान अनिवार्य है। पूरे देश में हिंदी की स्‍थिति अगर तमिलनाडु को छोड़ दे तो बड़ी सुखद है। पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में तो हिंदी ज्ञान अचंभित कर देने वाला है। इसी तरह से कर्नाटक , आंध्रप्रदेश, केरल में भी लोग हिंदी अपना रहे है। कारण साफ है आज का व्‍यक्‍ति रोजगार की तलाश में भारत के किसी भी भू-भाग में जाने को तैयार है। मुंबर्इ, दिल्‍ली जैसे महानगरों में रोजगार के जितने अवसर उपलब्‍ध है उतना अन्‍य प्रांतों, महानगरों में नहीं।

अत: भारत का जागरूक नागरिक अपने को अपनी भाषा संस्‍कृति में बांध के नहीं रखा है। वह दूसरी भाषा, सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा को सीखने को तत्‍पर है। हिंदी जानना आज की आवश्‍यकता है, जरूरत है, समय की मांग है। अत: सभी भारतवासी हिंदी की ओर उन्‍मुख हुए है। हिंदी का विरोध किसी भी भाषा से नहीं है चाहे वह अंग्रेजी ही क्‍यों न हो। विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने बच्‍चों को हिंदी सीखाना चाहते है। वे चाहते है कि अन्‍य भाषा की जानकारी के साथ उन्‍हें व उनके बच्‍चों को अपनी भाषा का ज्ञान होना जरूरी है। बिना अपनी भाषा ज्ञान के अपनी जड़ों को नहीं जाना जा सकता है। अत: आज हिंदी का दायरा बढ़ रहा है, हिंदी के पाठक बढ़ रहे हैं, हिंदी प्रेमी बढ़ रहे है, हिंदी सीखने, हिंदी को सराहने वाले बढ़ रहे है। अत: वह दिन दूर नहीं जब पूरा भारत हिंदीमय होगा।


विनोद राय

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

हिंदी विकास - देश का विकास

हिंदी भारत भूमि की भाषा है। यह पूरे देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली व समझी जाती है। भारतीय संविधान ने इसे राजभाषा का दर्जा प्रदान किया है। राजभाषा का अर्थ है राजकाज की भाषा। हिंदी को राजभाषा इसिलए बनाया गया जिससे शासक व शासित के बीच की दूरी समाप्‍त हो सके। शासक व शासित जितना एक दूसरे से दूर रहेंगे उतना ही वहां पर एक दूसरे के बारे में भ्रम रहेगा। इसलिए शासक और शासित के बीच भाषाई चिंतन की समानता होनी चाहिए। भारत में जनतंत्र है। प्रजातंत्र है। लोकतंत्र है। जिसमें जनता सर्वोपरि है। जिसमें जनता का हित सर्वोपरि है। जनता का हित ही परम लक्ष्‍य है। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जिससे शासक व शासित एक दूसरे की भावना को समझ सके तथा शासक को राजकाज चलाने में आसानी हो। परंतु खेद की बात है कि आजादी प्राप्‍त होने के 62 वर्षों के बाद भी हम अपना कामकाज अपनी भाषा में नहीं कर पाते है। संविधान के अनुसार सभी को बराबर का दर्जा प्राप्‍त है परंतु भाषा के माध्‍यम से हमने आपस में ही एक कृत्रिम अंतर पैदा कर रखा है और यह अंतर केवल अपने को श्रेष्‍ठ साबित करने, अपनी श्रेष्‍ठता बनाए रखने के लिए कर रखा है। देशहित में, जनहित में हमें इसका त्‍याग करना होगा। पूरा देश तभी सुखी होगा जब सबसे पहले शासन का कार्य शासितों की अपनी भाषा में होना प्रारंभ होगा। जिससे शासित अपने को शासन का एक अंग समझे और यह तभी होगा जब भारत सरकार अपनी भाषानीति को पूर्णतया लागू करने में समर्थ होगी। पूरे देश को एक ही भाषा जोड़ने का काम कर सकती है। वो है राजभाषा हिंदी। अत: हमें अपने व्‍यक्‍तिगत क्षेत्रीय स्‍वार्थों को छोड़कर देश के विकास में राजभाषा हिंदी को अपनाने के लिए आगे आना पड़ेगा तभी पूरे देश में राजभाषा हिंदी समान रूप से सम्‍मान को प्राप्‍त करेगी तथा पूरे देश का चिंतन एक जैसा हो जाएगा और हमारा आचार-विचार और व्‍यवहार एक जैसा होगा जिससे विश्‍व में हमारा मान बढ़ेगा, सम्‍मान बढ़ेगा और दूसरे देशों की दृष्‍टि में हम बलवान होंगे। आइए हम सब अपने निहित स्‍वार्थों को छोड़कर राष्‍ट्रहित में राजभाषा हिंदी को अपनाए।
विनोद राय

शुक्रवार, 26 जून 2009

ग़ज़ल

नाम उसका हुआ नहीं होता
गर वो गिर कर उठा नहीं होता


फैसला वर्षों बाद आए तो
न्याय वो न्याय नहीं होता

दुश्मनी उनसे मोल ले ली पर
ख़त्म ये सिलसिला नहीं होता

अक्स सच्चा दिखा न पाता तो
आइना, आइना नहीं होता

शायरी ऐसा ख़्वाब है जिसमें
कोई छोटा बड़ा नहीं होता

होती मेरी ग़ज़ल मुकम्मल गर
बेतख़ल्लुस लिखा नहीं होता

मंगलवार, 23 जून 2009

राजभाषा हिन्दी

इस समय गर्मी अपनी चरमअवस्था पर है। सूर्य के ताप से इस समय सारी भारत भूमि तप्त है, परन्तु हम सब इस ताप को केवल इस आशा से सहते हैं कि आने वाले दिन पावस के हैं। जब गर्मी का अन्त हो जाएगा और सम्पूर्ण धरती हरी-भरी हो जाएगी और हमें ताप से राहत मिलेगी। ठीक यही स्थिति राजभाषा हिन्दी की है। अंग्रेजी का प्रताप जहाँ हर ओर फैला हुआ है वहीं राजभाषा हिन्दी सुषुप्तावस्था में पूरे देश में विद्यमान है। जैसे दुख के बाद सुख आता है उसी प्रकार से एक दिन हिन्दी लौटेगी। हिन्दी के साथ भारतीय संस्कार लौटेंगे, भारतीय भाषाएँ लौटेंगी। "हिंदी पत्रिकाओं का प्रकाशन" राजभाषा हिन्दी के लौटने की आहट देता है। जरूरत है सभी को इस आहट को सुनने और समझने की और इसे पहचानने की। हिन्दी आएगी, इसकी पदचाप सुनाई दे रही है, बहुत दिनों तक इसकी मौजूदगी को आप नकार नहीं सकते हैं। वह निःशब्द आ रही है, वह हमारे पास है, उसे रोका नहीं जा सकता। वह दिन दूर नहीं जब सम्पूर्ण भारतवासी हिन्दी को पहचान लेंगे, उसे हृदयस्थ करेंगे, उसे गले लगाएँगे, उसे अपना बनाएँगे, उससे अपने जैसा व्यवहार करेंगे।
-विनोद राय