मंगलवार, 21 जुलाई 2009

हिंदी - विरोध की भाषा नहीं

संसद के इस सत्र के दौरान अब तक तीन बार ऐसा हो चुका है जब अंग्रेजी में जबाब दे रहे मंत्री महोदय को हिंदी में जबाब देने को कहा गया। तीनों बार मंत्री महोदय ने हिंदी में जबाब दिया तथा आगे पूछे गए प्रश्‍नों के उत्‍तर हिंदी में दिए। प्रश्‍न यह है क्‍या किसी व्‍यक्‍ति को किसी भाषा विशेष में जबाब देने को कहा जा सकता है अथवा भाषा विशेष बोलने के लिए कहां जा सकता है। नियमत: नहीं परंतु ऐसा होने के बावजूद सत्‍ता पक्ष ने सदस्‍यों के अनुरोध करने पर हिंदी में जबाब दिया। प्रश्‍न पूछने वालों का आग्रह था कि आप तो अच्‍छी हिंदी जानते हैं, आपकी हिंदी तो अच्‍छी है तो फिर जबाब अंग्रेजी में क्‍यों दे रहे है। बड़ा अच्‍छा हुआ कि हमारे मंत्रियों ने तुरंत हिंदी में उत्‍तर दे दिया तथा भाषा के मामले में लचीला रूख दिखाया। इससे यह भी पता चलता है कि हमारे मंत्रीगण राजभाषा को कितना सम्‍मान देते है। जब आप किसी भाषा को सम्‍मान देते है तो उससे जुड़े लोगों का भी आप सम्‍मान करते है, उस भाषाभाषी क्षेत्र का भी आप सम्‍मान करते है। वैसे भी जब एक बार सरकार बन जाती है तो वह पूरे देश में शासन करने के लिए होती है। किसी क्षेत्र विशेष, भाषा विशेष अथवा वर्ग विशेष की नहीं रह जाती है। और सरकार का कार्य है सब को जोड़ना, सबको साथ लेकर चलना जिससे सब साथ-2 चले, सबमें साथ-2 चलने की समझ बढ़े।
यहां विशेष तौर पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो हिंदी के हितैषी है वे किसी को हिंदी बोलने के लिए मजबूर न करें तभी हिंदी का भला होगा। किसी भाषा विशेष का विशेष आग्रह रखने पर विरोध के स्‍वर उठने लगते है क्‍योंकि पूर्वाग्रह से प्रेम नहीं घृणा की उत्‍पत्‍ति होती है, प्रेम जहां एक दूसरे को जोड़ता है वहीं घृणा विलगाव पैदा करता है, अलगाव को बढावा देता है, प्रेम जहां समीपता लाता है वही विरोध दूरी पैदा करता है अत: इस मामले में हिंदी भाषियों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी प्रचारकों से संयमपूर्ण आचरण की अपेक्षा है। आजादी के बाद से आज तक का हिंदी का सफर अपनी योग्‍यता से अधिक हुआ है सरकारी प्रयासों से नहीं। इस संबंध में यह याद दिलाना श्रेयष्‍कर होगा कि आज जिस भाषा का डंका पूरे विश्‍व में बज रहा है वहां पर फ्रांस का आधिपत्‍य होते ही वहां की राजभाषा फ्रेंच हो गई थी तब इंग्‍लैंड में भी अंग्रेजी को कुछ इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जैसे कि आज हिंदी को। अंग्रेजी को तीन सौ साल लगे थे इंग्‍लैंड की पुन: राजभाषा बनने में। हमारे देश को तो आजाद हुए अभी 62 वर्ष ही हुए है। अत: हिंदी प्रेमियों से अनुरोध है कि वे विरोध के माध्‍यम से हिंदी को आगे न बढ़ाने का प्रयास करें। जिन्‍हें कम जानकारी है उन्‍हें बताकर, हिंदीतर भाषियों को अपना बनाकर ही पूरे भारतवर्ष में हिंदी को स्‍वीकार कराया जा सकता है। अत: बेहतर होगा हिंदी प्रेमीजन सकारात्‍मक तरीके से राजभाषा का प्रचार करें, उसे आगे बढ़ाए तभी इच्‍छित परिणाम प्राप्‍त होगा।

विनोद राय

1 टिप्पणी: