हिंदी भारत भूमि की भाषा है। यह पूरे देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली व समझी जाती है। भारतीय संविधान ने इसे राजभाषा का दर्जा प्रदान किया है। राजभाषा का अर्थ है राजकाज की भाषा। हिंदी को राजभाषा इसिलए बनाया गया जिससे शासक व शासित के बीच की दूरी समाप्त हो सके। शासक व शासित जितना एक दूसरे से दूर रहेंगे उतना ही वहां पर एक दूसरे के बारे में भ्रम रहेगा। इसलिए शासक और शासित के बीच भाषाई चिंतन की समानता होनी चाहिए। भारत में जनतंत्र है। प्रजातंत्र है। लोकतंत्र है। जिसमें जनता सर्वोपरि है। जिसमें जनता का हित सर्वोपरि है। जनता का हित ही परम लक्ष्य है। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जिससे शासक व शासित एक दूसरे की भावना को समझ सके तथा शासक को राजकाज चलाने में आसानी हो। परंतु खेद की बात है कि आजादी प्राप्त होने के 62 वर्षों के बाद भी हम अपना कामकाज अपनी भाषा में नहीं कर पाते है। संविधान के अनुसार सभी को बराबर का दर्जा प्राप्त है परंतु भाषा के माध्यम से हमने आपस में ही एक कृत्रिम अंतर पैदा कर रखा है और यह अंतर केवल अपने को श्रेष्ठ साबित करने, अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए कर रखा है। देशहित में, जनहित में हमें इसका त्याग करना होगा। पूरा देश तभी सुखी होगा जब सबसे पहले शासन का कार्य शासितों की अपनी भाषा में होना प्रारंभ होगा। जिससे शासित अपने को शासन का एक अंग समझे और यह तभी होगा जब भारत सरकार अपनी भाषानीति को पूर्णतया लागू करने में समर्थ होगी। पूरे देश को एक ही भाषा जोड़ने का काम कर सकती है। वो है राजभाषा हिंदी। अत: हमें अपने व्यक्तिगत क्षेत्रीय स्वार्थों को छोड़कर देश के विकास में राजभाषा हिंदी को अपनाने के लिए आगे आना पड़ेगा तभी पूरे देश में राजभाषा हिंदी समान रूप से सम्मान को प्राप्त करेगी तथा पूरे देश का चिंतन एक जैसा हो जाएगा और हमारा आचार-विचार और व्यवहार एक जैसा होगा जिससे विश्व में हमारा मान बढ़ेगा, सम्मान बढ़ेगा और दूसरे देशों की दृष्टि में हम बलवान होंगे। आइए हम सब अपने निहित स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्रहित में राजभाषा हिंदी को अपनाए।
विनोद राय
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