बुधवार, 15 जुलाई 2009

चिंता चिंतित न होने की

कहने को तो हम सब एक है, हम एकता के सूत्र में बंधे हुए है, एक दूसरे के प्रति संवेदनशील हैं परंतु क्‍या वास्‍तव में हम ऐसे ही है, शायद नहीं। तभी तो इतनी बड़ी-2 घटनाएं आए दिन घटती है जो हमारे मन को उद्वेलित कर देती है, परंतु कुछ दिन बाद हम उन्‍हें भूल जाते है और पुन: उसी कार्य को करने में संलग्‍न हो जाते हैं जिससे हमें अपार दुख मिलता है। हमारे आसपास कुछ भी हो जाए, कितना ही बड़ा नुकसान हो जाए, हम रूकते नहीं, हम चलते रहते हैं क्‍योंकि चलने का नाम ही जिंदगी है। पर क्‍या आपने कभी सोचा कि हमारे इस स्‍वभाव के कारण ही एक ही प्रकार की घटनाएं कुछ दिनों के अंतराल पर पुन: घटित होती है और हम केवल मूक दर्शक बने रहते है। हम केवल तभी चिंतित होते हैं जब वही विपत्‍ति हम पर पड़ती है। हमने कभी भी सामूहिक चिंता नहीं दिखाई। सामूहिक रूप से चिंतित नहीं हुए। क्‍योंकि हम प्रगतिशील है, प्रगतिशील आगे की सोचता है, प्रगतिशील रूकता नहीं है। नहीं, नहीं हम प्रगतिशील नहीं है। हम स्‍वार्थी हैं। हमें केवल अपने की चिंता है। केवल अपने अपनों की चिंता है। ‍परंतु व्‍यवस्‍था में सुधार तो तभी हो सकता है जब सभी को सबकी चिंता होगी। सबको चिंता तो तभी होगी जब सब में मानव मूल्‍य विकसित होंगे। जब मानव में मानव के प्रति प्रेम जागेगा, स्‍नेह जागेगा, एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को अपने समान समझेगा तभी सब सबकी चिंता करेंगे। कोई भी व्‍यक्‍ति ऐसा काम नहीं करेगा जिससे दूसरों को चिंता हो और इस तरह चिंतित करने वाली घटनाओं में स्‍वत: कमी आ जाएगी। अत: चिंता करें, अपने लिए नहीं बल्‍कि दूसरों के लिए तभी सब सुखी होंगे।
विनोद राय

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