यहां विशेष तौर पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो हिंदी के हितैषी है वे किसी को हिंदी बोलने के लिए मजबूर न करें तभी हिंदी का भला होगा। किसी भाषा विशेष का विशेष आग्रह रखने पर विरोध के स्वर उठने लगते है क्योंकि पूर्वाग्रह से प्रेम नहीं घृणा की उत्पत्ति होती है, प्रेम जहां एक दूसरे को जोड़ता है वहीं घृणा विलगाव पैदा करता है, अलगाव को बढावा देता है, प्रेम जहां समीपता लाता है वही विरोध दूरी पैदा करता है अत: इस मामले में हिंदी भाषियों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी प्रचारकों से संयमपूर्ण आचरण की अपेक्षा है। आजादी के बाद से आज तक का हिंदी का सफर अपनी योग्यता से अधिक हुआ है सरकारी प्रयासों से नहीं। इस संबंध में यह याद दिलाना श्रेयष्कर होगा कि आज जिस भाषा का डंका पूरे विश्व में बज रहा है वहां पर फ्रांस का आधिपत्य होते ही वहां की राजभाषा फ्रेंच हो गई थी तब इंग्लैंड में भी अंग्रेजी को कुछ इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जैसे कि आज हिंदी को। अंग्रेजी को तीन सौ साल लगे थे इंग्लैंड की पुन: राजभाषा बनने में। हमारे देश को तो आजाद हुए अभी 62 वर्ष ही हुए है। अत: हिंदी प्रेमियों से अनुरोध है कि वे विरोध के माध्यम से हिंदी को आगे न बढ़ाने का प्रयास करें। जिन्हें कम जानकारी है उन्हें बताकर, हिंदीतर भाषियों को अपना बनाकर ही पूरे भारतवर्ष में हिंदी को स्वीकार कराया जा सकता है। अत: बेहतर होगा हिंदी प्रेमीजन सकारात्मक तरीके से राजभाषा का प्रचार करें, उसे आगे बढ़ाए तभी इच्छित परिणाम प्राप्त होगा।
विनोद राय
very good effort . best of luck
जवाब देंहटाएं