वैसे तो हम दावा करते है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता दुनिया में सबसे अधिक प्राचीन है, सहिष्णुता हमारी रग-रग में रची बसी हुई है। दया हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। परोपकार हमारे चिंतन में है। सर्वधर्मसमभाव को लेकर हम जीवन जीते है। वसुधैवकुटुम्बकम की हमारी परिकल्पना है। परहित में हमारा जीवन बीतता है और यही हम एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को अच्छाई का पाठ पढाते नहीं थकते है और सभी धर्मों के संत इसी अच्छाई का प्रचार करते नहीं अघाते है परंतु क्या वास्तव में हम वैसे है जैसा हम कहते है, हमारी कथनी और करनी क्या एक है। इन दोनों में क्या साम्य है। अब जरा गौर करें - इस वर्ष मानसून सामान्य नहीं है। वर्षा अल्प है। पूरा देश सूखे की चपेट में है। पूरे देश में सामान्य से भी कम वर्षा हो रही है। आने वाला समय कठिन है। कठिन है हमारे मजदूरों, किसानों, कमजोर वर्गों के परिवारों के लिए। कठिन है उन बेसहारा लोगों के लिए जिनका जीवन वर्षा से जुड़े कारोबार पर आश्रित है। जो कृषि पर आश्रित है। सरकार कहती है कि आने वाले दिनों में अनाज के दाम बढ सकते है। खाद्यान्य का भंडार पर्याप्त है सरकार के पास। देश में अनाज की कमी नहीं होगी। इस कठिन समय को सभी जानते हैं। इस कठिन समय में हमारे संस्कार सामने आने चाहिए। हमें अपनी सभ्यता प्रस्तुत करनी चाहिए। पर वास्तविकता क्या है। हर दाल के दाम बाजार में लगभग 80 प्रतिशत बढ गए हैं। दूध की कीमतें बढ गई है। सब्जी पहले ही आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई थी। चीनी के दाम धीरे धीरे परंतु हमारी कथित सभ्यता के प्रतिकूल बढ रहे है। तो क्या हम केवल स्वार्थ के वशीभूत होकर जीवन नहीं जी रहे है। क्या यही हमारी प्राचीन सभ्यता की बानगी है। इस कठिन समय में जब सभी को सबका साथ देने की जरूरत है, दुर्बलों को सबलो के सहारे की जरूरत है। ऐसे में आवश्यक चीजों के बढते हुए दाम क्या हमारे चरित्र की वास्तविक महानता को स्वयं ही बयां नहीं कर रहे है। जरा सोचे, विचारे और व्यवहार करे।
विनोद राय
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आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत ख़ुशी हुयी !
जवाब देंहटाएंआशा है आगे भी आप ऐसी ही पठनीय रचनाएं लिखते रहेंगे !
पुनः आऊंगा !
हार्दिक शुभ कामनाएं !
क़ीमतें बढ़ने को लेकर आम आदमी के लिए आपकी चिंता वाजिब है। इसके लिए आपके द्वारा इंगित चारित्रिक विशेषताएँ तो दोषी हैं ही साथ ही खाद्य पदार्थों के वायदा कारोबार को अनुमति देना भी कारण है। जब तक खाद्य पदार्थों की सट्टेबाज़ारी पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता तब तक क़ीमतें इसी प्रकार बढ़ती रहेंगी और प्राकृतिक आपदाएँ तो आग में घी का काम करेंगी ही। इस महत्वपूर्ण विषय पर लेख लिखने के लिए बधाई।
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