गुरुवार, 30 जुलाई 2009

भारतीय कंपनियों के तिमाही नतीजे

लगभग सभी बड़ी कंपनियेां ने चालू वित्‍त वर्ष की पहली तिमाही के परिणाम घोषित कर दिए है। इन नतीजों से एक आशाजनक तस्‍वीर उभरकर सामने आती है। इन नतीजों से एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गई है कि भारतीय उद्योग जगत पर वैश्‍विक मंदी का उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ा जितना अन्‍य देशों पर। आईटी उद्योग की सभी बड़ी कंपनियों ने उम्‍मीद से बेहतर परिणाम दिए हैं। इन्‍फोसिस, टीसीएस सहित सभी कंपनियों का मुनाफा 20 प्रतिशत से अधिक का मुनाफा दर्ज किया है। कारण हमारी आईटी कंपनियों का कारोबार डालर में होता है। इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर क्षेत्र में निवेश की वजह से घरेलू बाजार में स्‍टील, सीमेंट की मांग बढ़ी है। इस कारण सीमेंट व स्‍टील कंपनियों ने भी शानदार वृद्धि दर्ज की है। एसीसी, ग्रासिम जैसी सीमेंट कंपनियों ने तो 50 प्रतिशत से भी अधिक लाभ दर्ज किया है। हांलाकि स्‍टील सेक्‍टर की दो बड़ी कंपनियां नामत: टाटा स्‍टील एवं सेल ने बिक्री के साथ साथ लाभ में भी कमी दर्ज की है। इससे यह पता चलता है कि रूकी हुई इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर संबंधी परियोजनाएं पुन: चल पड़ी है। सबसे अच्‍छे नतीजे हमारे सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने प्रस्‍तुत किए है। निजी बैंकों सहित सभी बैंकों ने 30-40 प्रतिशत लाभ दर्ज किया है। हांलाकि बढ़ता हुआ एनपीए चिंता का कारण हो सकता है। सरकार द्वारा ब्‍याज दरों में की गई कटौती की वजह से लोग ऋण लेने के इच्‍छुक है। प्रॉपर्टी बाजार में कीमतों में आई कमी की वजह से ग्राहक पुन: मकान खरीदने के लिए आगे आ रहे है। कच्‍चे तेल की स्‍थ्‍िार कीमतों के कारण सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनियां मुनाफे मे आ गई है। ऐसा उन पर सब्‍सिडी का बोझ कम होने के कारण हुआ है। इसके अतिरिक्‍त सरकार द्वारा उद्योग जगत को दिए गए 3 राहत पैकेज के प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं। बाजार में लिक्‍विडिटी की कमी नहीं है। निर्यात पुन: तेजी का रूख दर्शा रहा है। लगता है कि सब कुछ ठीक रहा तो सरकार द्वारा निर्धारित 9 प्रतिशत की जीडीपी दर हम प्राप्‍त करने में सफल होंगे। चिंता बजट घाटे को लेकर है जो जीडीपी का 6.8 प्रतिशत हो गया है। साथ ही चिंता सरकार की उधारी को लेकर है। हांलाकि सरकार की अपने उपक्रमों के विनिवेश के माध्‍यम से कुछ पूंजी जुटाने की योजना है। इस वर्ष मानसून कमजोर है। यदि मानसून की स्‍थिति यही बनी रहती है तो सरकार का खर्च बढ़ जाएगा अन्‍यथा इस वित्‍त वर्ष की चौथी तिमाही तक हम अर्थव्‍यवस्‍था को पटरी पर लाने में कामयाब होंगे।
विनोद राय

सोमवार, 27 जुलाई 2009

सच का सामना

जब से मैंने होश संभाला तथा स्‍कूल में पहली ही क्‍लास से टीचर ने सबसे पहले सच बोलने की शिक्षा दी। तब से अब तक सच बोलने, सच देखने, सच खोजने, सच का सामना करने की सीख कदम-कदम पर दी जाती रही है। परंतु "सच का सामना" नामक सीरियल के आते ही एक बवाल खड़ा हो गया। कोई भी "सच का सामना" करने को तैयार नहीं है। इसके विरोध में भिन्‍न भिन्‍न प्रकार के तर्क दिए जा रहे है। इन तर्कों में भी कुछ सच हो सकता है। हो सकता है पूछे गए प्रश्‍न मर्यादित न हो परंतु सारे प्रश्‍न तो ऐसे नहीं हो सकते है तथा इससे कार्यक्रम की प्रासंगिकता तो कम नहीं हो जाती है। परंतु सच का सामना करने से लोग घबराते क्‍यों है। शायद इसलिए कि हम झूठ में जीते हैं, सत्‍य तो बस उपदेश, विशेष रूप से पर उपदेश के लिए होता है। इस कार्यक्रम में बड़े लोगों को बुलाया जाता है जिन्‍हें अपने जीवन का सच सबको बताना होता है। इसी सच को उद्घाटित करने से वे लोग डर रहे है। डर तो हम इसलिए रहे है कि हम जितने बड़े है उतने ही बड़े झूठे भी है। अन्‍यथा विरोध के स्‍वर बड़े ही लोगों की तरफ से क्‍यूं उठते। हमारे देश में तो बड़ों तथा छोटों के सच अलग-अलग है। छोटे लोग तो सच का सामना करने को तैयार है क्‍योंकि वे तो सच्‍चे है परंतु उन्‍हें पग-2 पर झूठ का सामना करना पड़ता है। परंतु बड़े लोग इससे डर रहे है। डरने का कारण यह नहीं है कि उनका सच सामने जाएगा। उनके सच को जो सारा भारतवर्ष जानता है, पहचानता है। परंतु कहता नहीं है। उन्‍हें डर है कि अपनी जुबानी अपने सच को स्‍वीकार करने में उनकी अपूरणीय क्षति/ हानि हो सकती है। वैसे अच्‍छा होता कि बड़े लोग स्‍वयं इस कार्यक्रम में आते और अपने सच द्वारा जनता के बीच जो उनके प्रति भ्रम है, दुराव, दुराग्रह है, उसे ठीक करते, इससे जनता में एक सकारात्‍मक संदेश जाएगा, लोगों का बड़ों पर विश्‍वास बढ़ेगा, लोग उन पर भरोसा कर सकेंगे। अत: बड़े लोगों को चाहिए कि वे स्‍वत: इस कार्यक्रम का हिस्‍सा बनें और अपनी कथनी और करनी को आम जनता के बीच साबित करें। आखिर जीवनभर जनता को सच की सीख देने वाले हमारे बड़े लोगों को अपना सच साबित करने का इससे अच्‍छा मौका कब और कहां मिलेगा।

विनोद राय

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

भाजपा और मुसलमान

भाजपा महासचिव मुख्‍तार अब्‍बास नकवी ने कहा है कि मुसलमानों ने कमल को हराने के लिए अपना वोट कीचड़ में डाला। नकवी जी ऐसा क्‍यों कह रहे हैं, इसके पीछे क्‍या कारण है। भाजपा ने पहले 6 वर्षों तक शासन किया फिर पिछले पांच वर्ष विपक्ष में रही। विपक्ष में रहने पर पार्टी सत्‍ता में आने की तैयारी करती है और जो सत्‍ता में रहते हैं वे सत्ता में बने रहने के उपाय करते है। ऐसे में यह गंभीर चिंतन का विषय है कि भाजपा मुसलमानों को क्‍यों अपने साथ नहीं ले पाई अथवा मुसलमान भाजपा से क्‍यों नहीं जुड़ा और भाजपा ने पिछले ग्‍यारह वर्षों में मुसलमानों को अपने से जोड़ने के लिए क्‍या किया। अब यह महत्‍वपूर्ण है कि लोग किससे जुड़ना चाहते है। सर्वाधिक महत्‍व की बात है सुरक्षा। जहां व्‍यक्‍ति सुरक्षित महसूस करता है उसी से जुड़ता है। आपने महसूस किया होगा कि पशु, पक्षी, बच्‍चे भी उसी के पास जाना पसंद करते है जिनसे उन्‍हें अपनी सुरक्षा का कोई भय नहीं होता है। फिर मुस्‍लिम समुदाय तो एक जागरूक कौम है। भाजपा के साथ मुसलमान अपने आपको सुरक्षित नहीं समझता इसलिए वह नहीं जुड़ता है। एक तथ्‍य और गौर करने योग्‍य है कि सर्वाधिक कम पढ़े-लिखे लोग मुस्लिम समुदाय में ही है। भाजपा बुरी है अथवा अच्‍छी है इसका निर्णय वे अपने विवेक से न कर विश्‍वास का सहारा लेकर करते है। साथ ही भाजपा विरोधी दल मुस्‍लिमों में यह विश्‍वास पैदा करने में सफल हुए है कि भाजपा मुस्‍लिम विरोधी है। अब अगर मुस्‍लिम भाजपा से नहीं जुड़ते है तो गलती भाजपा की है। वे मुस्‍लिम मत चाहते है तो मुस्‍लिमों में अपने प्रति विश्‍‍वास क्‍यों नहीं पैदा करते है। यह विश्‍वास कहने से नहीं, करने से होगा, उनको महसूस कराने से होगा और जब मुस्‍लिम समुदाय को लगेगा कि आप सचमुच उनके हितैषी हो गए है, उनके लिए सकारात्‍मक है आप तो वे जरूर आपको गले लगाएंगे। अपना बनाएंगे, आपको आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। जरूरत है तो भाजपा को बड़ा बनने की, एकाकी चिंतन छोड़कर व्‍यापक चिंतन करने की, सबको साथ लेकर चलने की, बड़े का रोल निभाने की तभी मुस्‍लिम मतदाता उनसे जुड़ेगा अन्‍यथा मुस्‍लिम कभी भी कमल के पास नहीं आवेगा भले ही उसे कीचड़ में रहना पड़े। साथ ही यह कहना कि मुस्‍लिम भाजपा को नहीं समझ पाए है बिल्‍कुल गलत है। सत्‍य तो यह है कि भाजपा मुस्‍लिम को नहीं समझ पाई है।

विनोद राय

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

राजनीति को स्‍वच्‍छ छविवालों की दरकार


युवा कांग्रेस ने स्‍वच्छ छवि वालों को ही पार्टी में स्‍थान देने की बात कही है। यह ए‍क सकारात्‍मक कदम है। यदि ऐसा होता है तो यह राजनीति के लिए अच्‍छा होगा। आज किसी भी पढे लिखे व्‍यक्‍ति से पूछेगे कि राजनीति कैसी है तो वह तपाक से उत्‍तर देगा कि यह अच्‍छों का खेल नहीं है। यह अच्‍छों के लिए नहीं है। वैसे राजनीति बुरी नहीं होती है।राजनीति करने वाले बुरे होते हैं। राजनीति अर्थात राज करने की नीति, जनता पर शासन करने की नीति, यदि यह जनता की भलाई के लिए की जाती है तो उत्‍तम, परंतु यही राजनीति जब केवल अपने हितों को साधने, अपनी स्‍वार्थ सिद्धि करने, वर्ग विशेष को लाभांन्‍वित करने के लिए की जाती है तो यह राजनीति न होकर लाभनीति में परिवर्तित हो जाती है।
अब प्रश्‍न यह उठता है कि यदि स्‍वच्‍छ छवि वालों को मौका दिया जाएगा तो क्‍या स्‍वच्‍छ छवि वाले मौका लेना चाहेंगे। अभी आम चुनाव हुए, इसी से जुडा पिछले दिनों एक सर्वेक्षण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ। इस बार करोडपति सांसदों की संख्‍या सर्वाधिक है। अर्थात करोडपति उम्‍मीदवार के चुनाव जीतने की संभावनाए बढ़ जाती है। धनाढ्य होना और श्रेष्‍ठ चरित्र रखना विरोधाभास है। हमारा अनुभव इस बारे में अच्‍छा नही है। स्‍वच्‍छ छवि वाले पूर्व चुनाव आयुक्‍त शेषन, शिवखेड़ा, मुंबई के चुनावों में खडी एक कारपोरेट जगत की हस्‍ती का क्‍या हस्र हुआ यह सब जानते है। फिर भी संसार आशा पर चल रहा है।
प्रश्‍न यह है कैसे लोग स्‍वच्‍छ छवि वाले होते हैं, क्‍या वे जो धनी है परंतु जिनके खिलाफ कोई मामले लंबित नहीं है या वे जो केवल पढे-लिखे है, सुलझे है, जिनके खिलाफ कोई मामला विचाराधीन नहीं है अथवा वे जो गरीब है और जिनका चरित्र अच्‍छा है। राजनीति के लिए धन चाहिए, व्‍यक्‍ति को साधन सम्‍पन्‍न होना चाहिए। जो धनवान है राजनीति में आते ही उसे और धनवान होने के अवसर दिखाई देते है, वह और सबल होना चाहता है, जो गरीब है वह धनवान होने के लिए राजनीति में आना चाहता है। राजनीति एक सेवा है और सेवा स्‍वार्थ से नहीं हो सकती है। कम से कम आज की राजनीति तो सेवा नहीं है क्‍योंकि एक बार जो व्‍यक्‍ति राजनीति के माध्‍यम से कोई पद प्राप्‍त कर लेता है तो वह उसे मृत्‍यु तक छोड़ना नहीं चाहता, उस पर बना रहना चाहता है। अगर किसी कारण से छोडना ही पडे तो अपनी विरासत वह अपने परिवार को दे जाता है।
अच्‍छा तो यह होता है यदि सभी दल ऐसे लोगों को आगे ले आते जो संयमी हों, जिनका आचरण श्रेष्‍ठ हो, जो विवेक के सहारे निर्णय लेते हो, जिनका चिंतन व्‍यापक हो, जिनका चित्‍त उदात्‍त हो, जिनमें अपने से बड़ों के प्रति आदर हो, छोटो के प्रति स्‍नेह हो, गरीबों के प्रति करूणा हो और दुष्‍टों के प्रति अरूचि हो, जो स्‍वार्थ से अधिक परमार्थ को महत्‍व देते हो, जिनमें दंभ न हो, जो विनयी हो, जो दूसरों का दुख समझे, जिन्‍हें यथार्थ बोध हो, जिन्‍हें यथार्थ प्रिय हो, अथार्थ जो सचमुच चरित्रवान हो, प्रतिभावान हो, केवल ऐसे लोग जब सब दलों में आएंगे तो सबका चिंतन समान होगा और धीरे धीरे मलिन छवि के लोगों से राजनीति दूर होती जाएगी और राजनीति में स्‍वच्‍छ छवि वालों का प्रवेश और अंतत राजनीति भी स्‍वच्‍छ हो जाएगी और राजनीति स्‍वच्‍छ होने पर अच्‍छे लोग स्‍वाभावत: राजनीति में आएंगे।
जरूरत है इस संबंध में किसी भी दल के पहल करने की, उस पर अमल करने की, अपनी कथनी और करनी एक करने की। इस तरह के किसी भी विचार का सदैव स्‍वागत है।

विनोद राय

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

हिंदी - विरोध की भाषा नहीं

संसद के इस सत्र के दौरान अब तक तीन बार ऐसा हो चुका है जब अंग्रेजी में जबाब दे रहे मंत्री महोदय को हिंदी में जबाब देने को कहा गया। तीनों बार मंत्री महोदय ने हिंदी में जबाब दिया तथा आगे पूछे गए प्रश्‍नों के उत्‍तर हिंदी में दिए। प्रश्‍न यह है क्‍या किसी व्‍यक्‍ति को किसी भाषा विशेष में जबाब देने को कहा जा सकता है अथवा भाषा विशेष बोलने के लिए कहां जा सकता है। नियमत: नहीं परंतु ऐसा होने के बावजूद सत्‍ता पक्ष ने सदस्‍यों के अनुरोध करने पर हिंदी में जबाब दिया। प्रश्‍न पूछने वालों का आग्रह था कि आप तो अच्‍छी हिंदी जानते हैं, आपकी हिंदी तो अच्‍छी है तो फिर जबाब अंग्रेजी में क्‍यों दे रहे है। बड़ा अच्‍छा हुआ कि हमारे मंत्रियों ने तुरंत हिंदी में उत्‍तर दे दिया तथा भाषा के मामले में लचीला रूख दिखाया। इससे यह भी पता चलता है कि हमारे मंत्रीगण राजभाषा को कितना सम्‍मान देते है। जब आप किसी भाषा को सम्‍मान देते है तो उससे जुड़े लोगों का भी आप सम्‍मान करते है, उस भाषाभाषी क्षेत्र का भी आप सम्‍मान करते है। वैसे भी जब एक बार सरकार बन जाती है तो वह पूरे देश में शासन करने के लिए होती है। किसी क्षेत्र विशेष, भाषा विशेष अथवा वर्ग विशेष की नहीं रह जाती है। और सरकार का कार्य है सब को जोड़ना, सबको साथ लेकर चलना जिससे सब साथ-2 चले, सबमें साथ-2 चलने की समझ बढ़े।
यहां विशेष तौर पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो हिंदी के हितैषी है वे किसी को हिंदी बोलने के लिए मजबूर न करें तभी हिंदी का भला होगा। किसी भाषा विशेष का विशेष आग्रह रखने पर विरोध के स्‍वर उठने लगते है क्‍योंकि पूर्वाग्रह से प्रेम नहीं घृणा की उत्‍पत्‍ति होती है, प्रेम जहां एक दूसरे को जोड़ता है वहीं घृणा विलगाव पैदा करता है, अलगाव को बढावा देता है, प्रेम जहां समीपता लाता है वही विरोध दूरी पैदा करता है अत: इस मामले में हिंदी भाषियों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी प्रचारकों से संयमपूर्ण आचरण की अपेक्षा है। आजादी के बाद से आज तक का हिंदी का सफर अपनी योग्‍यता से अधिक हुआ है सरकारी प्रयासों से नहीं। इस संबंध में यह याद दिलाना श्रेयष्‍कर होगा कि आज जिस भाषा का डंका पूरे विश्‍व में बज रहा है वहां पर फ्रांस का आधिपत्‍य होते ही वहां की राजभाषा फ्रेंच हो गई थी तब इंग्‍लैंड में भी अंग्रेजी को कुछ इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था जैसे कि आज हिंदी को। अंग्रेजी को तीन सौ साल लगे थे इंग्‍लैंड की पुन: राजभाषा बनने में। हमारे देश को तो आजाद हुए अभी 62 वर्ष ही हुए है। अत: हिंदी प्रेमियों से अनुरोध है कि वे विरोध के माध्‍यम से हिंदी को आगे न बढ़ाने का प्रयास करें। जिन्‍हें कम जानकारी है उन्‍हें बताकर, हिंदीतर भाषियों को अपना बनाकर ही पूरे भारतवर्ष में हिंदी को स्‍वीकार कराया जा सकता है। अत: बेहतर होगा हिंदी प्रेमीजन सकारात्‍मक तरीके से राजभाषा का प्रचार करें, उसे आगे बढ़ाए तभी इच्‍छित परिणाम प्राप्‍त होगा।

विनोद राय

बुधवार, 15 जुलाई 2009

चिंता चिंतित न होने की

कहने को तो हम सब एक है, हम एकता के सूत्र में बंधे हुए है, एक दूसरे के प्रति संवेदनशील हैं परंतु क्‍या वास्‍तव में हम ऐसे ही है, शायद नहीं। तभी तो इतनी बड़ी-2 घटनाएं आए दिन घटती है जो हमारे मन को उद्वेलित कर देती है, परंतु कुछ दिन बाद हम उन्‍हें भूल जाते है और पुन: उसी कार्य को करने में संलग्‍न हो जाते हैं जिससे हमें अपार दुख मिलता है। हमारे आसपास कुछ भी हो जाए, कितना ही बड़ा नुकसान हो जाए, हम रूकते नहीं, हम चलते रहते हैं क्‍योंकि चलने का नाम ही जिंदगी है। पर क्‍या आपने कभी सोचा कि हमारे इस स्‍वभाव के कारण ही एक ही प्रकार की घटनाएं कुछ दिनों के अंतराल पर पुन: घटित होती है और हम केवल मूक दर्शक बने रहते है। हम केवल तभी चिंतित होते हैं जब वही विपत्‍ति हम पर पड़ती है। हमने कभी भी सामूहिक चिंता नहीं दिखाई। सामूहिक रूप से चिंतित नहीं हुए। क्‍योंकि हम प्रगतिशील है, प्रगतिशील आगे की सोचता है, प्रगतिशील रूकता नहीं है। नहीं, नहीं हम प्रगतिशील नहीं है। हम स्‍वार्थी हैं। हमें केवल अपने की चिंता है। केवल अपने अपनों की चिंता है। ‍परंतु व्‍यवस्‍था में सुधार तो तभी हो सकता है जब सभी को सबकी चिंता होगी। सबको चिंता तो तभी होगी जब सब में मानव मूल्‍य विकसित होंगे। जब मानव में मानव के प्रति प्रेम जागेगा, स्‍नेह जागेगा, एक मनुष्‍य दूसरे मनुष्‍य को अपने समान समझेगा तभी सब सबकी चिंता करेंगे। कोई भी व्‍यक्‍ति ऐसा काम नहीं करेगा जिससे दूसरों को चिंता हो और इस तरह चिंतित करने वाली घटनाओं में स्‍वत: कमी आ जाएगी। अत: चिंता करें, अपने लिए नहीं बल्‍कि दूसरों के लिए तभी सब सुखी होंगे।
विनोद राय

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

सोमवार, 13 जुलाई 2009

मेट्रो-हादसा

मेट्रो गिरी
मजदूर मरे
नेता आए
ऑंसू बहाएं
अफसर आए
अफसोस जताए
सबको चिंता मेट्रो की
मेट्रो देश की शान
तरक्‍की की पहचान
इंसान तो
रोज पैदा होते है
इंसान कहां मरा
मरी तो इंसानियत है
मरा तो मजूदर है
जो रोज मरता है।
जो असमय
मरने के लिए ही
पैदा होता है।
विनोद राय

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

विचित्र स्‍थिति

कल सरकार ने महंगाई के आंकड़े जारी किए। मुद्रास्‍फीति की दर कम हो गई है। महंगाई नकारात्‍मक हो गई है। बड़ा अच्‍छा लगा। सोचा, शासन अच्‍छा चल रहा है। शासक का बाजार पर नियंत्रण है। व्‍यवस्‍था दुरूस्‍त है। सुशासन की कल्‍पना साकार हो रही है। यह आम आदमी के लिए अच्‍छा है। आम आदमी महंगाई की मार से बचा हुआ है। आज सुबह बाजार गया। सब्‍जी खरीदने। कल से दूने भाव पर सब्‍जी बिक रही थी। सब्‍जी के दाम मैंने दो बार पूछे। परंतु दुकानदार ने वही दाम बताए। मैंने सोचा कैसी विचित्र स्‍थिति है। सरकार कुछ कहती है, प्रचारित कुछ किया जाता है, होता कुछ और ही है, पाया कुछ और जाता है। वेतनभोगी होने पर जब मेरी यह स्‍थिति है तो दूसरों का क्‍या होता होगा जो दैनिक मजूदरी करके अपनी जीविका चलाते हैं। क्‍या हमारे जनप्रतिनिधि यह नहीं जानते। किसी ने उत्‍तर दिया - हमारे जनप्रतिनिधि देश की बड़ी समस्‍याओं पर चिंतन करते हैं अत: उन्‍हें इन छोटी बातों का ध्‍यान नहीं रहता है। हां, वोट पड़ने के एक महीने पहले तक वे इन छोटी बातों का विशेष ध्‍यान रखते है जिससे कि मतदाता इतना कमजोर न हो जाए कि मतदान केंद्र तक ही न जा सके।

विनोद राय

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

हिंदी का बढ़ता दायरा

हिंदी पूरे देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा जानी जाने वाली भाषा है। स्‍वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति तक हिंदी ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बांधे रखा। जहां भारतेंदु हरिशचन्‍द्र ने निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति को मूल कहकर भाषा के माध्‍यम से सब उन्‍नति की कल्‍पना की हे। महात्‍मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चन्‍द्र बोस, बंकित चन्‍द्र चटर्जी आदि जैसे देशभक्‍तों ने हिंदी के महत्‍व को रेखांकित किया है। स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के पश्‍चात की जनसंचार माध्‍यम, रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्रों, फिल्‍मों के माध्‍यम से राजभाषा हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है। परिणामस्‍वरूप दूरदर्शन द्वारा दिखाए गए रामायण, महाभारत, हम लोग, कौन बनेगा करोड़पति जैसे धारावाहिकों के माध्‍यम से हिंदी भारत के कोने-कोने में फैल गई। इन कार्यक्रमों के माध्‍यम से न केवल अन्‍य भाषाभाषियों में हिंदी सीखने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न हुई बल्‍कि भारतीय संस्‍कृति का भी प्रसार हुआ। मेरा जूता है जापानी गाना पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय है। उत्‍तर भारत से हिंदी में प्रकाशित दैनिक जागरण की पाठकों की संख्‍या देश में सर्वाधिक है। हिंदी का प्रसार बढ़ रहा है परंतु नियमों के सहारे नहीं अपितु अपने स्‍वयं के आधार पर। इसका उदाहरण है हमारे चैनल्‍स। जिनते भी चैनल अंग्रेजी में थे उनको अपना हिंदी चैनल भी चालू करना पड़ा। कारण हिंदी के दर्शकों की संख्या सर्वाधिक है। इसी तरह से जो भी पत्रिकाएं अंग्रेजी में निकलती थी वे भी अब हिंदी में प्रकाशित हो रही है चाहे वह इंडिया टुडे हो अथवा फेमिना।

हिंदी को अपनाने में असमर्थ लोग तरह-2 के बहाने बनाते है यथा शब्‍दों की कमी की बात कहते हैं परंतु हिंदी भाषा के प्रसार व हिंदी पाठकों की संख्‍या में निरंतर वृद्धि होने के कारण इकनामिक टाइम्‍स और बिजनेस स्‍टैण्‍डर्ड जैसे अंग्रेजी के अखबार भी आज हिंदी में प्रकाशित हो रहे है तथा इनके पाठकों की संख्‍या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। कहने का मंतव्‍य यह है कि हिंदी हर क्षेत्र में मजबूती से अपने पांव पसार रही है। हिंदी सक्षम है तभी तो आगे बढ़ रही है, स्‍वीकारी जा रही है। आज से कुछ वर्ष पहले हमारे वरिष्‍ठ नौकरशाह चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक, डॉक्‍टरों को केवल अंग्रेजी में बोलते सुना जा सकता था परंतु आज परिस्‍थिति बदल गई है। इन सभी को आप धाराप्रवाह हिंदी बोलते सुन सकते है। राजनीतिक दल भी हिंदी को महत्‍व दे रहे है। कारण सबसे बड़ा भाषाभाषी समूह हिंदी का है। हिंदीतर नेता भी हिंदी सीख रहे हैं। कारण पूरे देश में लोकप्रिय, स्‍वीकार्य होने के लिए हिंदी ज्ञान अनिवार्य है। पूरे देश में हिंदी की स्‍थिति अगर तमिलनाडु को छोड़ दे तो बड़ी सुखद है। पूर्वोत्‍तर के राज्‍यों में तो हिंदी ज्ञान अचंभित कर देने वाला है। इसी तरह से कर्नाटक , आंध्रप्रदेश, केरल में भी लोग हिंदी अपना रहे है। कारण साफ है आज का व्‍यक्‍ति रोजगार की तलाश में भारत के किसी भी भू-भाग में जाने को तैयार है। मुंबर्इ, दिल्‍ली जैसे महानगरों में रोजगार के जितने अवसर उपलब्‍ध है उतना अन्‍य प्रांतों, महानगरों में नहीं।

अत: भारत का जागरूक नागरिक अपने को अपनी भाषा संस्‍कृति में बांध के नहीं रखा है। वह दूसरी भाषा, सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा को सीखने को तत्‍पर है। हिंदी जानना आज की आवश्‍यकता है, जरूरत है, समय की मांग है। अत: सभी भारतवासी हिंदी की ओर उन्‍मुख हुए है। हिंदी का विरोध किसी भी भाषा से नहीं है चाहे वह अंग्रेजी ही क्‍यों न हो। विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने बच्‍चों को हिंदी सीखाना चाहते है। वे चाहते है कि अन्‍य भाषा की जानकारी के साथ उन्‍हें व उनके बच्‍चों को अपनी भाषा का ज्ञान होना जरूरी है। बिना अपनी भाषा ज्ञान के अपनी जड़ों को नहीं जाना जा सकता है। अत: आज हिंदी का दायरा बढ़ रहा है, हिंदी के पाठक बढ़ रहे हैं, हिंदी प्रेमी बढ़ रहे है, हिंदी सीखने, हिंदी को सराहने वाले बढ़ रहे है। अत: वह दिन दूर नहीं जब पूरा भारत हिंदीमय होगा।


विनोद राय

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

हिंदी विकास - देश का विकास

हिंदी भारत भूमि की भाषा है। यह पूरे देश में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली व समझी जाती है। भारतीय संविधान ने इसे राजभाषा का दर्जा प्रदान किया है। राजभाषा का अर्थ है राजकाज की भाषा। हिंदी को राजभाषा इसिलए बनाया गया जिससे शासक व शासित के बीच की दूरी समाप्‍त हो सके। शासक व शासित जितना एक दूसरे से दूर रहेंगे उतना ही वहां पर एक दूसरे के बारे में भ्रम रहेगा। इसलिए शासक और शासित के बीच भाषाई चिंतन की समानता होनी चाहिए। भारत में जनतंत्र है। प्रजातंत्र है। लोकतंत्र है। जिसमें जनता सर्वोपरि है। जिसमें जनता का हित सर्वोपरि है। जनता का हित ही परम लक्ष्‍य है। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जिससे शासक व शासित एक दूसरे की भावना को समझ सके तथा शासक को राजकाज चलाने में आसानी हो। परंतु खेद की बात है कि आजादी प्राप्‍त होने के 62 वर्षों के बाद भी हम अपना कामकाज अपनी भाषा में नहीं कर पाते है। संविधान के अनुसार सभी को बराबर का दर्जा प्राप्‍त है परंतु भाषा के माध्‍यम से हमने आपस में ही एक कृत्रिम अंतर पैदा कर रखा है और यह अंतर केवल अपने को श्रेष्‍ठ साबित करने, अपनी श्रेष्‍ठता बनाए रखने के लिए कर रखा है। देशहित में, जनहित में हमें इसका त्‍याग करना होगा। पूरा देश तभी सुखी होगा जब सबसे पहले शासन का कार्य शासितों की अपनी भाषा में होना प्रारंभ होगा। जिससे शासित अपने को शासन का एक अंग समझे और यह तभी होगा जब भारत सरकार अपनी भाषानीति को पूर्णतया लागू करने में समर्थ होगी। पूरे देश को एक ही भाषा जोड़ने का काम कर सकती है। वो है राजभाषा हिंदी। अत: हमें अपने व्‍यक्‍तिगत क्षेत्रीय स्‍वार्थों को छोड़कर देश के विकास में राजभाषा हिंदी को अपनाने के लिए आगे आना पड़ेगा तभी पूरे देश में राजभाषा हिंदी समान रूप से सम्‍मान को प्राप्‍त करेगी तथा पूरे देश का चिंतन एक जैसा हो जाएगा और हमारा आचार-विचार और व्‍यवहार एक जैसा होगा जिससे विश्‍व में हमारा मान बढ़ेगा, सम्‍मान बढ़ेगा और दूसरे देशों की दृष्‍टि में हम बलवान होंगे। आइए हम सब अपने निहित स्‍वार्थों को छोड़कर राष्‍ट्रहित में राजभाषा हिंदी को अपनाए।
विनोद राय