विनोद राय
गुरुवार, 27 अगस्त 2009
बड़ी मछली का भ्रष्टाचार
इस देश के ईमानदार नागरिकों को तब कितना अच्छा लगता है जब शीर्ष पर बैठा हुआ जिम्म्ेादार व्यक्ति देश में व्याप्त्ा भ्रष्टाचार को सख्ती से निपटने की बात करता है। यह कथन तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब भ्रष्टाचार के मामले में बडे लोगों पर कार्रवाई की बात की जाती है। ऐसा सुनकर न केवल अच्छा लगता है बल्कि एक आशा की किरण भी दिखाई देती है कि कम से कम कोई तो इस बात को सोचता है और समझता है कि भ्रष्टाचार के मामले में बडे लोगों पर कार्रवाई होती नहीं दिखती है। अवसर विशेष पर कहने तो प्रधानमंत्री जी ने बहुत बडी बात कह दी पर क्या इस तरह के बयान सीबीआई, एंटी करप्शन ब्यूरो के सम्मेलन में ही कही जा सकती है । क्या इससे यह अर्थ नहीं निकलता है कि भ्रष्टाचार के मामलेों में बडे बच निकले हैं, जबकि उन्हें पकडने, रोकने के लिए भारत सरकार की कई एजेंसिया कार्यरत हैं। यह भी गौर करने योग्य होगा कि पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल के दौरान जब भी बडी मछली पकडी गई तो उस पर क्या कार्रवाई हुई। सबसे स्मरणीय उदाहरण मुलायम सिंह यादव, श्री लालू प्रसाद यादव, मायावती और सुखराम जी के हैं। बडे रसूख व पहुंच रखने वाले इन व्यक्तियों पर अब तक क्या कारवाई की गई यह सब जानते हैं। बडो पर तो बडे ही कार्रवाई करेंगे, बिना बडो के सहयोग व समर्थन से बडो पर कौन कार्रवाई करेगा या कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा पावेगा। बडे लोगो को केवल बडी बाते ही नहीं बोलनी हैं बल्कि इस कार्य में लगे कार्मिकों का मनोबल भी बढाना है और उनका मनोबल तभी बढेगा जब इस कार्य के पक्ष में बडे लोगों का अंदर और बाहर दोनो रूपों में समान समर्थन मिलेगा। बडो पर कार्रवाई न होने की वजह से बहुत नागरिक भ्रष्टाचार की तरफ आकर्षित होते है उनको पता है कार्रवाई तो होनी नहीं है, यदि होनी भी है कि इतना समय लग जाएगा कि इसकी गंभीरता जाती रहेगी। भ्रष्टाचार के मामलों में सरकार द्वारा त्वरित कार्रवाई न करने और न्यायपालिका द्वारा ऐसे मामलो को निपटाने में लिया जाने वाला असाधारण समय इस मर्ज को लाइलाज बना रहा है। आज भ्रष्ट कौन नहीं है डाक्टर से लेकर इंजीनियर तक, नेता से लेकर अभिनेता तक, शिक्षक से लेकर प्रशिक्षक तक, व्यापारी से लेकर नौकरशाह तक सब भ्रष्टाचार से लिप्त हैं। भ्रष्टाचार के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं और जो नहीं है वे अवसर की ताक में हैं। इस मामले में सबका चरित्र एक जैसा हो गया है अथवा हम कहे कि भ्रष्टाचार करना हमारा अखिल भारतीय चरित्र हो गया है तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। ऐसे में केवल कहने से, दम भरने से कार्य नहीं होगा। कथनी को करनी में बदलना होगा। बदलाव के लिए दृढ इच्छा शक्ति दिखानी होगी। कानून की नजरों में सबके साथ एक जैसा व्यवहार करना होगा। बडो को अपने से भ्रष्टाचार को न केवल मुक्त रखना है बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लडी जाने वाली जंग का नेतृत्व भी करना है तभी बात बनेगी, स्थिति सुधरेगी। अन्यथा इस तरह के वक्तव्य महज रसम अदायगी का कार्य करेगे तथा ये कर्णप्रिय लग सकते हैं पर ह्रदयप्रिय कभी नहीं और हम भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकलने में कभी भी कामयाब नहीं होंगे। जरा सोचे, विचारे फिर व्यवहार करें।
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
जिन्ना का जिन्न
यह सच है कि जिन्ना ही मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र बनाने के हिमायती थे क्योंकि उन्होंने हिंदु और मुसलमान को दो अलग-अलग कौम माना। यह भी सच है कि उन्हीं के कारण भारत का विभाजन हुआ और दोनों समुदायों को बंटवारे की त्रासदी झेलनी पड़ी। लाखों लोग बेघर हुए। हजारों माताओं के सिंदूर पुछ गए। लाखों बच्चे अनाथ हो गए। लाखों लोग विकास की दौड़ में पिछड़ गए। शारीरिक और मानसिक यातना का तो कहना ही क्या। जब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि जिन्ना मुसलमानों के हिमायती थे और उन्होंने अपनी सोच को अमली जामा भी पहना दिया तो फिर उनके बारे में पुस्तक लिखने से क्या फायदा। पुस्तक में जिन्ना की तारीफ से क्या होगा। क्या भुगते हुए कष्टों में कमी आ जाएगी अथवा भारतीय जनता जिन्ना को माफ कर देगी। असल में भाजपा मुद्दों की तलाशमें भटक रही है। भाजपा जिन मुद्दों पर कभी सत्ता में आई थी उनमें से एक भी पूरा करने में नाकामयाब रही। भाजपा को अहसास हो गया कि बिना मुस्लिम समर्थन के वे पुन: सत्ता सुख नहीं प्राप्त कर सकते है। भारत के मुसलमानों को तो भाजपा अपना नहीं बना सकी तो अब दूसरे देश और विशेष रूप से हमारे पड़ौसी देश के व्यक्ति को महिमामंडित करके भारतीय जनता पार्टी के लोग मुस्लिमों के बीच अपनी पार्टी की उदार छवि प्रस्तुत करने के लिए बेचैन दिख रहे है। इसके पीछे इनका ध्येय जो भी हो पर इतना तो तय है कि पार्टी मुस्लिमों में अपनी पैठ बनाने के लिए व्याकुल है और जिन्ना की प्रशंसा भी उसी दिशा में उठाया गया दूसरा कदम है। इसके पहले आडवाणी जी ने भी अपना असफल प्रयास किया था। लेखक से यह भी पूछा जा सकता है कि मरहूम जिन्ना की गुणगाथा से भारत को क्या लाभ मिलेगा। क्या भारत में ऐसे मुस्लिम नेताओं की कमी है जिन पर लिखने की जरूरत नहीं है या जिनके बारे में बहुसंख्यक समुदाय को और जानकारी दी जानी चाहिए। ऐसे देशभक्त मुस्लिमों के बारे में बताने की जरूरत है जिससे देश में अमन-चैन बढ़े, शांति का प्रसार हो, आपसी सद्भावना बढ़े। भाजपा को चाहिए कि यदि वह सचमुच चाहती है कि मुसलमान उसका समर्थन करें, उसके साथ चले, उसका साथ दे तो देश के अंदर रह रहे मुसलमानों को वह ध्यान दें। उन्हें अपना बनाने की कोशिश करें, उनकी प्रगति में भागीदार बने तभी मुसलमान उसकी तरफ मुखातिब होगा अन्यथा वह उससे उदासीन बना रहेगा।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन्ना अब हमारे नहीं है, वे पराये है। वे धर्मनिरपेक्ष थे अथवा पंथसापेक्ष इससे बहुत कुछ हल नहीं होने वाला है। फिर उनके बारे में लिखने से क्या फायदा। किसी को लिखना ही है तो अपने बारे में, अपने अपनेां के बारे में लिखें। अपनों के बारे में दी गई जानकारी लाभप्रद भी हो सकती है। मेरा तो अपना यही मत है कि जिन्ना एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति नहीं थे। उनके व्यक्तित्व से जुड़ने का यह परिणाम है कि जो भी उनके समीपस्थ होना चाहता है या जो भी उनका यशगान करता है उसी की हानि हो जाती है। उसे ही पराभव मिलता है, अपयश प्राप्त होता है जो उनके व्यक्तित्व नकारात्मक गुणों को ही उद्घाघित करता है। ऐसे में हमारे विद्वान राजनेताओं विशेषकर भाजपा से जुड़े राजनेताओं को चाहिए कि वे जिन्ना मोह छोड़कर भारत की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एकता पर अपनी कलम चलाए जिससे भारत में रहने वाले सभी वर्गों का भला हो सके, सभी की प्रगति हो और पूरा देश खुशहाल हों। फिर उनके बारे में लिखने से क्या फायदा।विनोद राय
सोमवार, 17 अगस्त 2009
कमीने
मैंने अभी अभी टीवी सेट आन किया है मुख्य समााचारों का जिक्र करते हुए उददघोषिका कहती है आज से कमीने मुंबई के सिनेमाघरों में । मैं सकते में आ गया। मैंने सोचाा कि इस तरह के उटपटांग नाम रखकर फिल्म निदेशक समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं। क्या वे सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं इस तरह के नाम रखके या एक खास तबके को सिनेमाघरों तक खींचना चाहते हैं। लेकि यह सब क्येां। केवल पैसा कमाने के लिए, केवल अपने लाभ के लिए, केवल अपना हित साधने के लिए, और यह सब भी देश के उस युवा वर्ग की कीमत पर जो हमारा वर्तमान हैं, जो ऊर्जावान हैं, जो कुछ भी करने कराने पर आमादा हैं, जो किसी भी कीमत पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। इतनी बडी जमात के प्रति ऐसा व्यवहार। क्या धनार्जन ही हमारा परम लक्ष्य है। देश समाज के प्रति कोई जवाब देही अथवा उत्तरदायित्व नहीं। युवावस्था जिसमें भावनाएं अपने किनारों को तोडने के लिए सदैव तत्पर रहती है, जिसमें कोई भी भाव स्थाई नहीं होता है, जिसमें अपने प्रेय को प्राप्त करने लिए उचित अनुचित साधन के इस्तेमाल का ध्यान नहीं होता है। उस वर्ग के साथ ऐसा खिलवाड़, बाजारवाद का इतना निरंकुश दुरूपयोग, स्वार्थवरता की पराकाष्ठा, उत्तरदायित्व हीनता का ऐसा प्रतिमान, संस्कारहीनता का ऐसा प्रदर्शन, ऐसा प्रयोग जो मूल को ही नष्ट करने पर आमादा हो। आप समाज के श्रेष्ठ सदस्य हैं, संसाधनों से परिपूर्ण हैं तो अपने संसाधनों का उपयोग लोगों के चारित्रिक पतन के लिए करेंगे। लाभ के बदले हानि पहुचाएगे। आपका देश के नौजवानों के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं है। युवावस्था में मन बिलकुल तरल रहता है, आगे बढने के रास्ते ढूढता है। किसी भी मार्ग से आगे बढना चाहता है उसे इस तरह का प्रलोभन, खुला निमंत्रण, वह भी राम व कृष्ण, कबीर व तुलसी के देश में। अक्षम्य अपराध। युवा वर्ग संचित बल है। ऊर्जा का अक्षय स्रोत्र है । इसका हमारा समाज किस तरह उपयोग करना चाहता है, इसकी जिम्मेदारी हम पर है। मैं फिल्म सेंसर बोर्ड से अनुरोध करता हॅूं कि वे इस तरह के नाम वाली फिल्मों पर पाबंदी लगाएं। एक तो वैसे ही अच्छे नाम वाली फिल्में भी वे सब कुछ दिखा रही हैं जो समाज व देश तथा हमारे नौजवानों के लिए अच्छा नहीं है ऐसे में कमीने नाम ही मन में एक उन्माद पैदा कर रही है। नकारात्मक ऊर्जा का संचार कर रही है। ऐसे में सब यदि कमीने होने लगे तो हमारे चारित्रिक अनुशासन और उन आदर्शों का क्या होगा जिसके बल पर हमारा देश खड़ा है और जो हमारी अंतरनिहित मजबूती है। जरा सोचें, जरा मनन करें।
विनोद राय
विनोद राय
बुधवार, 12 अगस्त 2009
हमारा राष्ट्रीय चरित्र
वैसे तो हम दावा करते है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता दुनिया में सबसे अधिक प्राचीन है, सहिष्णुता हमारी रग-रग में रची बसी हुई है। दया हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। परोपकार हमारे चिंतन में है। सर्वधर्मसमभाव को लेकर हम जीवन जीते है। वसुधैवकुटुम्बकम की हमारी परिकल्पना है। परहित में हमारा जीवन बीतता है और यही हम एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को अच्छाई का पाठ पढाते नहीं थकते है और सभी धर्मों के संत इसी अच्छाई का प्रचार करते नहीं अघाते है परंतु क्या वास्तव में हम वैसे है जैसा हम कहते है, हमारी कथनी और करनी क्या एक है। इन दोनों में क्या साम्य है। अब जरा गौर करें - इस वर्ष मानसून सामान्य नहीं है। वर्षा अल्प है। पूरा देश सूखे की चपेट में है। पूरे देश में सामान्य से भी कम वर्षा हो रही है। आने वाला समय कठिन है। कठिन है हमारे मजदूरों, किसानों, कमजोर वर्गों के परिवारों के लिए। कठिन है उन बेसहारा लोगों के लिए जिनका जीवन वर्षा से जुड़े कारोबार पर आश्रित है। जो कृषि पर आश्रित है। सरकार कहती है कि आने वाले दिनों में अनाज के दाम बढ सकते है। खाद्यान्य का भंडार पर्याप्त है सरकार के पास। देश में अनाज की कमी नहीं होगी। इस कठिन समय को सभी जानते हैं। इस कठिन समय में हमारे संस्कार सामने आने चाहिए। हमें अपनी सभ्यता प्रस्तुत करनी चाहिए। पर वास्तविकता क्या है। हर दाल के दाम बाजार में लगभग 80 प्रतिशत बढ गए हैं। दूध की कीमतें बढ गई है। सब्जी पहले ही आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई थी। चीनी के दाम धीरे धीरे परंतु हमारी कथित सभ्यता के प्रतिकूल बढ रहे है। तो क्या हम केवल स्वार्थ के वशीभूत होकर जीवन नहीं जी रहे है। क्या यही हमारी प्राचीन सभ्यता की बानगी है। इस कठिन समय में जब सभी को सबका साथ देने की जरूरत है, दुर्बलों को सबलो के सहारे की जरूरत है। ऐसे में आवश्यक चीजों के बढते हुए दाम क्या हमारे चरित्र की वास्तविक महानता को स्वयं ही बयां नहीं कर रहे है। जरा सोचे, विचारे और व्यवहार करे।
विनोद राय
विनोद राय
बच्चा
आज सुबह जब मैं समाचार पत्र पढ रहा था तभी मेरी दृष्टि एक चित्र पर गई। चित्र पर गई दृष्टि चित्रित हो गई। वह ढीठ होकर रूक गई और आगे बढ़ने से मना कर दी। चित्र एक छोटे बच्चे का था। करीब एक वर्ष के आसपास उसकी उम्र होगी। वह एक महिला व एक पुरुष के बीच में स्थित था। वह बच्चा था। वह कोमल दीख रहा था। पूरा शरीर उसका रूई की तरह था। उसे पाने की इच्छा हो रही थी। उसे अपने पास बैठाने की इच्छा हो रही थी। उसके साथ रहने की इच्छा हो रही थी, उसके साथ खेलने की इच्छा हो रही थी। वह प्रसन्न दीख रहा था, उसके मुख पर आभा थी, विभा थी, निश्छलता थी। वह सत्य था, दीप्त था, आलोकित था, प्रकाशित था। वह पूर्ण था। मुग्ध करने वाला था। वह मुझे प्रसन्नता दे रहा था। उसे देखकर मुझे सुख मिल रहा था, मन को चैन आ रहा था, शांति मिल रही थी। मैं उस पर मोहित था। मुझे ध्यान आया कि उसे आखिर हम बच्चा कहते क्यो है। बहुत सोचने पर मन ने कहा कि बच्चा तो इसलिए कहते है क्योंकि वह बचा है। बचा है लोभ से, मोह से, क्रोध से, लालच से, छल से, कपट से, ईर्ष्या व द्वेष से, झूठ और फरेब से इसीलिए तो वह बच्चा है।
विनोद राय
विनोद राय
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
सत्संग
सत का संग, सज्जनों का संग को सत्संग कहते है। कहते है कि सन्मार्ग पर चलने के लिए सत्संग जरूरी है। व्यक्ति जैसे जैसे बड़ा होता है वह जीवन बिताने के लिए अपना मार्ग /तरीका चुनता है। जीवन जीने के तरीके विभिन्न हो सकते हैं पर सब का लक्ष्य सुखमय जीवन बिताना है परंतु क्या सुमार्ग पर चले बिना यह संभव होगा। क्या बबूल का वृक्ष रोप कर आप उससे आम के फल प्राप्त करने की इच्छा कर सकते है। ठीक उसी तरह बिना सत्संग के आप सफल जीवन नही जी सकते है। रामचरित मानस में इसकी महिमा का कुछ इस तरह से वर्णन किया गया है।
'बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई'गोस्वामी जी कहते है कि अच्छे बुरे का विवेक ही सत्संग से आता है परंतु इसके लिए प्रभु की कृपा होनी जरूरी है। अब प्रभु की कृपा कैसे प्राप्त होगी उसके लिए व्यक्ति को क्या करना होगा। प्रभु की कृपा प्राप्त करने के लिए सबसे पहला गुण व्यक्ति को विनयी होना चाहिए, शीलवान होना चाहिए
क्योंकि तुलसीदास जी ने कहा कि प्रभु को 'मोहि कपट छल छिद्र न भावा' । ऐसे लोग नापसंद हैं जो कपटी हैं, छलिया है, दूसरों का दोष निकालते हैं ऐसे व्यक्ति प्रभु के कृपा पात्र नहीं हैं। फिर कैसे लोग प्रभु की कृपा का सुख प्राप्त कर सकते है तुलसीदास जी कहते है
'अस विवेक जब देई विद्याता, तबतजि दोष गुनहि मनुराता'
ईश्वर केवल सुपात्रो पर अपनी कृपा बरसाते है उनकी कृपा से ही विवेक जागृत होता है तभी मनुष्य अवगुणों को छोडकर गुणों की तरफ आकृष्ट होता है। गुणों से उसे लगााव हो जाता है।गुण ही उसे अच्छे लगने लगते हैं। गुणी ही उसके प्रिय हो जाते है। परंतु ऐसा तभी हो सकता है जब आप मन से, कर्म से, वचन से सत्यार्थी होंगे। सत्य के प्रति आपकी रूचि होने पर ही आप सत्संग की तरफ प्रवृत्त होगें। जिसका जीवन सत्संग से युक्त है वही सुखी है, वही सफल है, वही सहिष्णु है, वही सरल है। अत: सत्संग करें जीवन की बाधाएं, अभाव आप कम हो जाएंगे और आप समभाव से जीवन यापन कर सकेंगे।
विनोद राय
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
प्राणों से अधिक प्यारी कुर्सी
लाखों वर्ष पहले हमारे ऋषि मुनि कह गए थे कि यह संसार असारवान है। यहां कुछ भी स्थाई नहीं है, सब कुछ नश्वर है, केवल आत्मा ही अजर और अमर है। ऐसे में प्राणों से भी अधिक प्यार कुर्सी को देकर हमारे एक नेता ने एक नई अनुभूति पैदा कर दी है। एक क्रांति ला दी है। लोग रोमांचित है, आह्ललादित है, गर्व से भरे हुए है। इस नश्वर संसार में लोगों को कुछ तो अनश्वर दिलाई पड़ा। करोंड़ों वर्षों की ऋषि-मुनियों की तपस्या आज झूठी हो गई। हम कलियुग में है। कलियुग के अपने मानदण्ड है, हम नए प्रतिमान स्थापित करेंगे। तुलसीदास जी को फिर से सोचना होगा कि "प्राण जाय पर वचन न जाय" कितना ठीक है। हमने कुर्सी के महत्व को पहचाना है तथा इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है। हमारा सारा जीवन इसी कुर्सी के लिए ही तो समर्पित है। कुर्सी ही अजर, अमर और सत्य है बाकी बाकी सब असत्य और छलावा है। शास्त्र भी कहता है कि "महाजनों येन गता स: पन्था" बड़े लोग जिस मार्ग पर चले, वही रास्ता है, वही सुमार्ग है, वही सन्मार्ग है। हमें बड़ों के द्वारा दिखाए रास्तों पर चलना चाहिए। ऐसे में बूटा सिंह जी द्वारा दिया गया बयान हमारे समाज के लिए कितना प्रेरणास्पद होगा। जिन्हें कुर्सी का लालच नहीं, उन्हें लज्जित होना चाहिए। उन्हें अपनी अज्ञानता पर शर्म आना चाहिए। उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी रह गई थी। वे संस्कारवान नहीं है। उन्हें विरासत में कुछ नहीं मिला है। वे देश के विकास में क्या योगदान दे पाएंगे जो खुद का विकास नहीं कर सके। अब तक वे अंधकार में जीवन जी रहे थे। उन्हें कोई ज्ञान नहीं है। बूटा सिंह जी केवल अकेले ऐसे आधुनिक भारतीय मनीषी नहीं है जिन्हें कुर्सी प्रिय है। ये तो उसी सशक्त माला के एक दीप्त मोती है। ऐसे अनेकों मनीषियों के बारे में हमारी जानकारी अल्प है। यह खोज का विषय है, अनुसंधान का विषय है, साथ ही चिंता की बात है कि ऐसे उत्तम पुरुषों के बारे में हमारी जानकारी कितनी सीमित है। उम्मीद है ऐसे प्रबल प्रकाशपुंज से करोड़़ों भारतीय लाभान्वित होंगे, उनका चिंतन प्रभावित होगा, परिमार्जित होगा, उनके जीवन से नैराश्य मिटेगा, उनके दु:ख दूर होंगे, उन्हें संसार मोहक व सारवान दिखाई देने लगेगा। वे संसार में निवृत न होकर प्रवृत होंगे, आने वाली पीढ़िया उन्हें प्रात:स्मरणीय के रूप में याद रखेगी। ऐसे कुर्सी प्रेमी, आत्मबलिदानी, देशभक्त नेता को सारे भारतवर्ष का कोटि-कोटि नमन व वंदन।
विनोद राय
विनोद राय
सोमवार, 3 अगस्त 2009
ग़ज़ल
बदल देते वो अपने हमसफर हर बार चुटकी में
बदल जाती है ज्यों इस मुल्क की सरकार चुटकी में
जवानी हो रवानी हो दिलों में जब हमारे तो
बजे धड़कन में भी पाजेब की झन्कार चुटकी में
मुहब्बत से किसे है वास्ता इस दौर में सचमुच
ज़माने में है अब तो जिस्म की दरकार चुटकी में
कभी दे कर तो देखो गीतकारों को निज़ामत भी
ख़तम हो जाएगी दो मुल्कों की तकरार चुटकी में
परिन्दों को ख़बर क्या नफ़रतों की सीमा रेखा का
कभी इस पार चुटकी में कभी उस पार चुटकी में
किसी फ़न का प्रदर्शन होता था बरसों की मेहनत से
बने हैं अब किसी भी क़िस्म के फनकार चुटकी में
है मुश्किल है ख़ुदा की बन्दगी में ख़ुद को पा लेना
मगर कहते हैं अब तो ख़ुद को ही अवतार चुटकी में
है इक अरसा लगा मुझको ग़ज़ल का फ़न समझने में
नमन करता हूँ उनको जो कहें अशआर चुटकी में
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