बुधवार, 12 मई 2010

क्रिकेट के व्‍यवसायी

वेस्‍टइंडीज में चल रहे 20-20 विश्‍व कप टूर्नामेंट के सुपर-8 मुकाबले के तीनों मैच भारत हारकर इस प्रतिस्‍पर्धा से बाहर हो गया है। पहला 20-20 विश्‍व कप जीतने के बाद ऐसा लगा था कि हमारे नौजवान खिलाड़ियों में वो दमखम है जिसके बलबूते पर वे विश्‍व की किसी भी टीम को हराने का माद्दा रखते है। नौजवानों की एक और फौज तैयार करने के लिए आईपीएल की शुरूआत की गई। इसके पीछे धारणा यही थी कि क्रिकेट के इस प्रारूप में और भारतीयों को अपना हुनर दिखाने का मौका मिलेगा तथा आगे चल के वे देश का प्रतिनिधित्‍व कर पाएंगे। शायद इसी अवधारणा के साथ आईपीएल की प्रत्‍येक टीम में घरेलू खिलाड़ियों की संख्‍या अधिक रखी गई है। साथ ही, आईपीएल में विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेलने का मौका मिलता है जिससे भारतीय खिलाड़ी उनके अनुभवों से लाभ उठा सके तथा उनसे एक स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्धा भी कर सके। परंतु आईपीएल की जिस वाह्य संकल्‍पना के साथ शुरूआत की गई थी और जिसके मूल में केवल धन कमाना था तो तीन वर्षों में इसने खिलाड़ियों को भी केवल धन कमाने के लिए उन्‍मुख कर दिया। खिलाड़ी अब अपना सर्वश्रेष्‍ठ खेल आईपीएल में ही दिखा रहे है। इस आशा से कि अगली बार जब उन पर बोली लगाई जाए तो वो और अधिक पैसा कमा सके। निसंदेह आईपीएल ने बहुत से भारतीय खिलाड़ियों को जो गुमनामी के अंधेरे में जी रहे थे एकाएक पैसों की चकाचौंध भरी दुनिया में पदार्पण करने का मौका प्रदान किया परंतु पिछले तीन वर्षों में खिलाड़ियों में पैसा ही मुख्‍य लक्ष्‍य हो गया और देश सेवा, देश का गौरव, देश भक्‍ति इत्‍यादि पीछे छूट गई। वेस्‍टइंडीज में चल रहे विश्‍व कप को देखकर कोई भी भारतीय आसानी से कह सकता है कि हमारे खिलाड़ियों ने अपने विरोधियों के खिलाफ वो जुझारूपन नहीं दिखलाया जो उन्‍होंने अपने देश में चल रहे आईपीएल में अपने विरोधियों के खिलाफ दर्शाया था। कहते है कि उचित साधन से ही उचित साध्‍य की प्राप्‍ति होती है ऐसे में जब भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने आईपीएल की संकल्‍पना केवल पैसे कमाने के लिए की थी तो भारतीय टीम के इस प्रदर्शन पर हमें न तो दुखी न ही कोई आश्‍चर्य प्रकट करना चाहिए। पैसे के आगे एक बार फिर देश पीछे छूट गया। पैसे के आगे बोर्ड और भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों ने करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों को एक बार फिर से छला। ऐसे में मेरी भारतीय क्रिकेट बोर्ड को मेरी यही सलाह है कि जो खिलाड़ी आईपीएल में खेले उन्‍हें देश का प्रतिनिधित्‍व न करने दिया जाए। केवल देश के लिए खेलने हेतु एक नई टीम तैयार की जाए। 


विनोद राय 

सोमवार, 8 मार्च 2010

महिला आरक्षण

अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी बिल प्रस्‍तुत किया गया। पिछले 12 वर्षों से संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने पर विचार विमर्श, चिंतन बैठकें इत्‍यादि विभिन्‍न राजनैतिक दलों द्वारा किया जा चुका है। कुछ राजनैतिक दल अभी भी इस बिल को इस रूप में पास नहीं होना देना चाहते हैं। कारण, वे  चाहते हैं कि इस आरक्षण के अंतर्गत भी कमजोर वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण किया जाए। एक कहावत है कि 'जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्‍या जाने पीर पराई'  हमारे राजनीतिज्ञों ने समाज के हर क्षेत्र में आरक्षण लागू कर दिया है। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या व्‍यवसाय का क्षेत्र हो या सरकारी नौकरी हो या कोई अन्‍य कार्य। आरक्षण हर जगह लागू है। वैसे तो समाज के कमजोर तबके को मुख्‍य धारा में लाने का यह कारगर उपाय है परंतु यह पूर्ण रूप से सफल नहीं  रहा है। कोई भी निर्णय जिससे अपना अहित न होता हो दूसरों पर बड़ी आसानी से थोपा जा सकता है परंतु जब उसी निर्णय को खुद पर लागू करने की बात आती है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है, दिन में ही तारे नजर आने लगते है। बात महिलाओं को 33 प्रतिशत संसद में आरक्षण देने की नहीं है असली बात तो यह है कि संसद में महिलाओं की संख्‍या बढ़ते ही पुरुषों को अपनी सीटे उनके लिए खाली करनी पड़ेगी। एक बार जब व्‍यक्‍ति किसी चीज या वस्‍तु का अभ्‍यस्‍त हो जाता है तो उस पर वह अपना स्‍वामित्‍व समझने लगता है। ऐसे में उस स्‍वामित्‍व और सुविधा को खोना आसान नहीं होता है। मैं इस माध्‍यम से अपने जनप्रतिनिधियों को यह बताना चाहता हूँ कि जब नौकरियों में आरक्षण लागू करने की बात की जाती है और कानून बनाकर इसे और बढ़ाने की बात की जाती है तो कुछ इसी तरह की व्‍यग्रता और बौखलाहट के साथ-साथ निराशा की भी भावना प्रत्‍येक पढ़े-लिखे भारतीय के मन में घुमड़ने लगती है। हमारे जनप्रतिनिधियों के लिए अवसर है कि वे अपनी कथनी और करनी को एक रूप में प्रस्‍तुत करें जिससे आम जनता यह जान सके कि जो लेने वाले है वो देश और समाज की आवश्‍यकता के अनुरूप अपने हितों का त्‍याग भी कर सकते हैं। 


विनोद राय  

बुधवार, 3 मार्च 2010

ग़ज़ल

हर बगिया में छितराई फूलों की टोली है
छाए रंग बहारों के होली है या रंगोली है

गीतों गंज़लों की झड़ी है लगी    अब   हर महफिल में
बे बहर की ग़ज़ल भी सुन लो बुरा न मानो होली है

सिंधी   ना गुजराती    न   मराठी    मेरी   भाषा
प्यार की भाषा जो बोले वो मेरी ही बोली है

कि गले मिलना औ' होली खेलन सब भूले हैं
टी वी कंप्यूटर की,  फसल ये कैसी बो ली है

अपना हित मत साधो सत्ता छिन भी सकती है
सियासत से मत खेलो जनता अब ना भोली है

मत पूछो किस-किस ने   जान गँवाई बदले में
तुमने जब भी प्यार के बदले नफरत घोली है

बम डालो या फूल मुहब्बत के ये तुम पर है
इन्साँ  की  ख़ातिर    फैला  दी  मैंने    झोली है

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

वेलेंटाइन डे

पिछ्ले एक ह्फ्ते से मौसम कुछ बदला बदला सा नजर आ रहा है। बाजारों में चहल पहल बढ गई है। युवक युवतियां वेलेंटाइन डे मनाने की तैयारी करने की योजनाएं बना रहें है। उनके चेहरो पर एक अजीब सी उत्सुकता देखी जा सकती है। युवक-युवतियां चुस्त दुरूस्त नजर आ रही है। युवक युवतियों का समूह अलग अलग बैठकर अपनी रणनीति बना रहा है। पिछ्ले एक दशक से वेलेंटाइन डे मनाने का चलन भारत में बढा है। आखिर वेलेंटाइन डे है क्या ?क्या करते है इस दिन युवक एवं युवतियां? युवक एवं युवतियां इस दिन एक दूसरे के प्रति प्रेम का इजहार करतें है तथा एक दूसरे को भेट इत्यादि देते लेते है। तो क्या पिछले एक दशक से ही युवक युवतियां एक दूसरे के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर रहे है इसके पहले नही? ऐसा नही है।आदि काल से प्रेम किया जा रहा है,यह अलग बात है कि युवा लुक छिप कर प्रेम करते थे।वेलेंटाइन डे पर अब युवा मुक्त प्रेम प्रदर्शित करते है ।वे दुनियां को बताना चाहते हैं कि वे प्रेमी है।पर क्या प्रेम सृष्टि का उदगम नहीं है । प्रेम ही तो सृष्टि का कारक है। प्रेम पर ही तो सृष्टि टिकी हुई है। प्रेम है तो सृष्टि है। आज के समाज में प्रेम का अभाव है। इंसान इंसान से प्रेम नहीं करता है बल्‍कि घृणा करता है, घृणा से वैमनस्‍य बढ़ता है तथा समाज खंडित होता है, समाज का विघटन होता है जो विकास के लिए बाधक है। इसके विपरीत प्रेम दूरी कम करता है, नजदीकिया बढ़ाता है, प्रेम कल्‍याण चाहता है, प्रेम विकास चाहता है, प्रेम से शांति बढ़ती है, सुख मिलता है, सामाजिक सदभाव बना रहता है। क्‍या हम घर में, स्‍कूलों में अपने बच्‍चों को एक दूसरे से प्रेम करने का पाठ नहीं पढ़ाते हं। क्‍या हम यह नहीं जानते हैं कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में शांति तभी रह सकती है जब समाज में प्रेम रहेगा। तो फिर वेलेंटाइन डे का विरोध क्यों ?  प्रेमी तो अपने आप में मस्‍त रहते हैं, वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते है। उनका किसी से विरोध नहीं होता है। वे तो बस अपने प्रेम को पाना चाहते हैं, अपने प्रेम की सुरक्षा चाहते है। प्रेम एक सकारात्‍मक ऊर्जा का प्रवाह है, इसे मत रोके। अगर रोकना है तो नफरत को रोके,  वैमनस्‍य को रोके जो समाज को बांटता है। प्रेम को बढ़ने दे, इसे मुक्‍त बहने दें, इसे सबमें समा जाने दें जिससे सब एक हो जाए, सब एक दूसरे के हो जाए।


विनोद राय

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

भ्रष्‍टाचार

अंततः मेरी बात सही साबित हुई ।ज्ञानी लोगों की बातो को अज्ञानी लोग हलके में लेते है।इसीलिए पीडा पाते है ।छ्ठे वेतन आयोग की सिफारिश पर हमारे आफिस रामदीन ने कहा था कि साहब, सबसे अधिक फायदा बडे अधिकारियों को हुआ है ।छोटे कर्मचारियों को तो बस  झुनझुना थमा दिया गया है ।सरकार भी जानती है कि छोटे कर्मचारी काम तो करते नहीं ,बल्कि जिंदा रहने के लिए व्यायाम करने हेतु आफिस पधारते है इसलिए सरकार भी इन्हें उतना ही वेतन देती है जिससे ये बेसुध अवस्था में चिरंतर पडे रहें ।आखिर इनके जीने के मौलिक अधिकार का भी ध्यान रखना है सरकार को।कल जब मध्यप्रदेश के एक आइ ए एस दंपति के घर से करोडो की नकदी बरामद हुई तो रामदीन सहित अन्य कामचोर कर्मचारियों  ने मेरे पैर छुए और मेरे अंतरज्ञान को सराहा। एक ने तो यह भी कहा कि कुछ आपके करम अच्छे होते तो आप भी चांदी काट रहे होते ।खैर मैने एक बार फिर सरकार को कोसा।वेतन आयोग में बड़े अधिकारियों का वेतन का निर्धारण खुद बड़े अधिकारी करते है। अभी वेतन आयोग की सिफारिशे लागू हुए एक साल ही बीता है मिला हुआ एरियर अभी कायदे से पच भी नहीं पाया है ऐसे में हमारे शीर्ष अधिकारी अपना घर चलाने के लिए इतनी जल्‍दी भ्रष्‍ट हो जाएंगे अंदेशा तो था पर उम्‍मीद नहीं थी। पर होनी को कौन टाल सकता है। संप्रति मामले में तो पति-पत्‍नी दोनों आईएएस अधिकारी है। फिर भी कमी रह गई जिस कारण से इन्‍हें भ्रष्‍टाचार करना पड़ा। वैसे भारत जैसी तपोभूमि पर जहां दिन रात साधु संत, महात्‍मा लोग विभिन्‍न चैनलों के माध्‍यम से अनवरत सदाचरण की शिक्षा देते रहते है वहां इस तरह की एकाकी घटना पर ध्‍यान नहीं देना चाहिए। केवल तुच्‍छ और अकर्मण्‍य लोग ही इस पर ध्‍यान देते है। इस तरह के एकाकी मामले श्रेष्‍ठ पुरूषों से अनजाने में हो जाता है। क्‍या पता पकड़े गए धन को अधिकारी पत्‍नी सहित कुंभ में दान करने के लिए संग्रहीत किया हो तथा शुभ मुहुर्त में हरिद्वार रवाना होने वाले हो ऐसे में सीबीआई द्वारा छापा मारकर इन्‍हें इस श्रेष्‍ठ कार्य को करने से विरत करने का दंडोचित कार्य सीबीआई ने किया है। इसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। जनकल्‍याण के कार्यों में लगाने के लिए संचित धन की यह गति शास्‍त्रसम्‍मत नहीं है। धन पकड़ने वालों को केवल धन दिखाई दिया धन स्‍वामी के मन को इन्‍होंने नहीं परखा। श्रेष्‍ठ लोग दूसरे के  कल्‍याण के लिए ही जीवन जीते है, हो सकता है यह संग्रह इन दंपत्‍ति ने इस प्रयोजन से किया हो। हम छोटे लोग बड़े लोगों के मन की बात क्‍या जाने। क्षमा करें। मेरा तो सरकार से बस नम्र निवेदन है कि हमारे शीर्ष अधिकारियों को उतना वेतन तो मिलना ही चाहिए जितने में वे आसानी से जीवनयापन कर सके और अपना पूरा ध्‍यान भारतभूमि की गरीबी मिटाने, गंगा मां को पवित्र करने, प्रदूषण नियंत्रित करने और चरित्र सुधार जैसे महत्‍वपूर्ण कार्यों में लगा सके।


विनोद राय 

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

राहुल गांधी का मुंबई दौरा

पिछ्ले दिनों राहुल गांधी ने मुंबई का दौरा किया।वे शिवसेना व मनसे के विरोध के वावजूद मुंबई आए ।बडा अच्छा लगा ।मनसे और शिवसेना मुह ताकते रह गई।  राहुल का जहां जी चाहा वहां गये।मुंबई की सड्को पर बेखौफ हो कर घूमें ।एक ब्यक्ति के लिए पूरी फौज की व्यवस्था की गई थी। पर क्या इसके बाद वहां रह  रहे उत्तरभारतीय अपने आप को  सुरक्षित महसूस करेंगे ।वे भी पहले की तरह स्वच्छंदता से जीवन यापन कर पाने मे सफल होंगे ।एक बात तो तय है कि यदि सरकार चाहे तो क्या नही कर सकती है।मुंबई में सबको पता है कि कौन लोग उत्तरभारतीयों के पीछे है।पिछ्ले एक वर्ष से मनसे और शिवसेना का उत्पीड्न जारी है ।पर सरकार ने अपने कान बंद रखे ।मीडिया ने भी इनके विषवमन को खूब दिखाया ।परंतु सत्तापक्ष को उस समय इसकी जरूरत थी।चुनाव हो गये।काम बन गया।सत्ता फिर मिल गई ।पर इसका दुष्परिणाम यह निकला कि अपने फायदे के लिए सत्ता पक्ष ने जिसका दुरूपयोग किया  वही अब मराठी लोगों के बीच एक मजबूत ताकत के रूप में उभर आया ।मजबूत होना किसे अच्छा नही लगता है ।उसने अपनी मजबूती का उपयोग सत्तापक्ष के ही खिलाफ प्रयोग करने की चेष्टा की ।सरकार की साख दाँव पर लग गई ।सरकार की किरकिरी होने से बच गई।परंतु प्रश्न यह है कि जब तक स्थिति नियंत्रण से बाहर नही हो जाती है तब तक सरकार कोई ठोस कदम क्योंनही उठाती है।कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की होती है । अगर समय से इन ताकतो पर कारवाई कर दी जाय तो समाज और देश के लिए एक बडा खतरा बनने से पहले ही समाप्त हो जाता है और जरूरत भी इसी बात की है अन्यथा देश के एक छोटे से प्रांत मे घटित हो रही घटनाओ की प्रतिक्रिया यदि किसी बडे प्रांत अथवा बडे भाषा भाषी वर्ग से होता है तो स्थिति नियंत्रण से परे हो जायगी ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

वोट की राजनीति और कांग्रेस

पिछ्ले एक साल से मुंबई में उत्तर भारतीयों पर लगातार हमले हो रहें है,वहां पर काम कररहे उत्तर भारतीयों को सरेआम पीटा जा रहा है। कुछ लोग तो मुंबई छोड्कर अपने गांव वापस भी लौट आए पर किसी भी राजनितिक दल ने इस पर कोई टिप्पणी नही की। तब किसी भी राजनीतिक दल को उत्‍तर प्रदेश और बिहार के लोगों का दर्द व पीड़ा नहीं समझ आई। शिव सेना और महाराष्‍ट्र नवनिर्माण सेना के नेता खुलेआम मीडिया में उत्तर भारतीयों के विरूद्ध व्‍यक्‍तव्‍य देते रहे तथा मुंबई तथा पुणे की सड़कों पर उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसा होती रही। सभी चुप थे। एक दो बयान आते भी थे तो राजनीतिक दलों द्वारा नहीं बल्‍कि खेल, सिनेमा, साहित्‍य से जुड़ी हस्‍तियों के। 6 माह पहले महाराष्‍ट्र में चुनाव हुए और चुनाव में कांग्रेस व राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की मिली जुली सरकार चुनकर सत्‍ता में आई। सत्‍ता में आने से पहले व सत्‍तासीन होने के बाद भी इन दोनों दलों ने उत्‍तर भारतीयों के जानमाल की सुरक्षा के लिए न तो कोई आवश्‍यक कदम उठाएं और न ही केंद्र में सत्‍तारूढ़ कांग्रेस की सरकार ने महाराष्‍ट्र सरकार को ऐसा कुछ निदेश दिया। कारण साफ था। शिव सेना और मनसे की इस तरह की नीतियों के चलते ही मतों का विभाजन हुआ  और जिसका फायदा कांग्रेस और राष्‍ट्रीय कांग्रेस पार्टी को मिला। अभी कल ही कांग्रेस महासचिव श्री राहुल गांधी बिहार के दौरे पर गए थे। पटना में छात्रों को संबोधित करते हुए राहुल जी ने बिहारियों और उत्‍तर भारतीयों की मुंबई में रक्षा करने की हुंकार भरी। इनकी सुरक्षा की चिंता जग उठी।  किसी कांग्रेस के नेता द्वारा ऐसा बोलते हुए सुना जाना अच्‍छा  लगा। सोचा कि इस मुद्दे का भी अब हल निकल ही आएगा। पर सोचते हुए मन एक बात पर अटक गया कि आखिर राहुल जी को बिहार दौरे के दौरान उत्‍तर भारतीयों की सुरक्षा का ध्‍यान क्‍यों आया। क्‍या इसके पहले महाराष्‍ट्र में हो रही उत्‍तर भारतीयों के विरूद्ध हिंसा की जानकारी इनको नहीं थी। ऐसा नहीं था। इनकी चुप्‍पी जानबूझकर थी। महाराष्‍ट्र में मत विभाजन के उद्देश्‍य से यह चुप थे तो बिहार में मत मांगने के लिए बोल पड़े। कारण साल के अंत में बिहार में विधान सभा के चुनाव होने वाले है और कांग्रेस को बिहार में अपनी पैठ मजबूत करनी है। मैंने राहुल जी को कई बार बोलते सुना है। उनके व्‍यक्‍तव्‍य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को बढ़ावा देने वाले तथा पूरे भारत को एकता में जोड़ने वाले होते हैं लेकिन बिहार दौरे के दौरान बिहारियों की सुध लेने की बात कहना कर राहुल गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि सभी दलों के लिए वोट की राजनीति ही श्रेष्‍ठ होती है। सत्‍तासीन होने के लिए किसी वर्ग की जान भी चली जाए तो इसका हमारे राजनीतिज्ञों के ऊपर कोई असर नहीं पड़ता है । कांग्रेस दोबारा सत्ता में धर्मनिरपेक्षता के सहारे लौटी है। महाराष्‍ट्र में उत्तर भारतीयों को सुरक्षा न दे पाना तथा बिहार में आसन्‍न चुनाव के मद्देनजर बिहारियों के हितों की बात करना महज एक दिखावा तथा वोट की राजनीति है और इस तरह से कांग्रेस, भाजपा से इस मामले में किसी भी तरह से अलग नहीं है। भारतीय जनता जागरूक है। इन नेताओं को समय आने पर सही सबक भी सिखाएगी। 


विनोद राय