मंगलवार, 1 सितंबर 2009

परीक्षा का विकल्‍प

परीक्षा का नाम सुनते ही हर कोई सावधान हो जाता है चाहे वह बडा हो या छोटा, बालक हो या युवा, अधेड हो या बुजुर्ग, सबके ऊपर परीक्षा एक जैसा प्रभाव दिखाती है। परीक्षा कोई भी हो, चाहे वह पढाई की परीक्षा हो, नौकरी की परीक्षा हो, चाहे वह कोई अन्‍य परीक्षा हो, परीक्षा का नाम ही काफी है व्‍यक्‍ति को सचेत करने के लिए। परंतु सरकार द्वारा यह घोषणा किया जाना कि अब से दसवीं की परीक्षा अनिवार्य नहीं होगी, पूरे देश के लाखों बच्‍चेां व उनके अभिभावकों को थेाडी राहत मिलेगी। ऐसा नहीं है कि परीक्षा नहीं होनी चाहिए अथवा परीक्षा बुरी होती है, लेकिन परीक्षा ऐसी भी नहीं होनी चाहिए कि बच्‍चे के पीछे पूरा परिवार सब कुछ त्‍यागकर लग जाए। मां बाप सोते जागते बच्‍चे से एक ही रट लगाए रखते हैं कि उसे परीक्षा में अच्‍छा करना है, परीक्षा में सर्वश्रेष्‍ठ अंक प्राप्‍त करना है इत्‍यादि। इस तरह का मानसिक दबाव आए दिन किशोर मन को ठेस पहुचाता है और वे बिना सोचे समझे कुछ ऐसे कदम उठा लेते है जिसके कारण माता पिता पूरे जीवन पश्चाताप करते है।
अब जरा गौर करें दसवीं के छात्र के मानसिक व शारीरिक स्‍थिति पर। 14 वर्ष के बच्‍चे से समाज ने क्‍या अपेक्षा कर रखी है। ये दिन उसके खेलने, मुक्‍त विचरण के होते हैं पर हमने तेा कक्षा एक से ही उसे शिक्षा की बेडियों में जकड़ रखा है कि वह अपना बचपन ही भूल जाता है। हमारा बच्‍चा कक्षा एक में पढने गया नहीं कि हमें उसे यह बनाना है, हमें उसे वह बनाना है, निरंतर जाप करना शुरू कर देते हैं। बच्‍चा जो अभी बचपन से निकल शैशवावस्‍था में आता है कि आकाक्षाएं और भी बढ जाती है और हम उसे एक डाक्‍टर, इंजीनियर, आइटी विशेषज्ञ बनाने की सोचने लगते हैं और चारों पहर यही रट लगाए रहते हैं। माना कि बच्‍चों को प्रारंभ से ही पढने की आदत डालनी चाहिए उन्‍हें अनुशासित रखना चाहिए, उन्‍हें पढने के लिए विशेष ध्‍यान देना चाहिए जिससे आगे चलकर वे अपना जीवनयापन अच्‍छी तरह से कर सके, वे आत्‍मनिर्भर बने। इसी को ध्‍यान में रखकर हम अपने बच्‍चों को केवल पढने व केवल पढने पर जोर देते है (सिवाय कुछ धनाढ्य लोगो के जिनकी संतान को पढने या न पढने की सहूलियत मिली हुई है ) । महानगरों के अभिभावक तो और भी प्रभावी तरीके से बच्‍चों को पढाई करने को कहते हैं। निसंदेह उनका यह प्रभाव रंग दिखाता है और अधिकांश बच्‍चे सफल होते है परंतु तस्‍वीर का यह एक पहलू है। पूरा अखबार केवल कुछ ही बच्‍चों के बारे में बताता है जिन्‍होने अच्‍छे अंक से परीक्षा पास की है । इतने अच्‍छे स्‍कूल, उतने ही अच्‍छे अध्‍यापक और इतने ही अच्‍छे अभिभावकों के होने के बावजूद क्‍या देश का कोई स्‍कूल यह दावा कर सकता है कि उसके सारे बच्‍चों ने परीक्षा में एकसमान अंक प्राप्‍त किया है। ऐसा न हुआ है न कभी होगा। कारण सभी बच्‍चों की क्षमताएं अलग अलग हैं। कोई तीव्र बुद्धि का हो सकता है, तो कोई मध्‍यम बुद्धिवाला, तो कोई औसत समझ वाला, तो कोई कुसाग्र बुद्धि वाला। ऐसे में अभिभावकों और अध्‍यापकों द्वारा बच्‍चों से परीक्षा में अच्‍छा करने का जो मानसिक दबाव होता है वह बच्‍चों के लिए ठीक नहीं है। यह भी गौर करने की बात है कि विेदशी भी भारतीय शिक्षा पद्धति का लोहा मानते हैं परंतु इतने होनहार छात्रों के होते हुए विश्‍व की विभिन्‍न खोजों, अविष्‍कारों में भारत का क्‍या योगदान है यह सब को पता है और पूरा संसार भी इसे जानता है। ऐसे में परीक्षा के हौवे को 2 वर्षों के लिए टालकर मानव संसाधन मंत्री जी ने एक सराहनीय कार्य किया है। उनके इस प्रयास से बच्‍चों के कोमल मन को तैयारी करने का अतिरिक्‍त समय मिल जाएगा तथा उनमें परिपक्‍वता भी आ जाएगी वे अधिक समझदार व गंभीर हो जाएगे । वे अपने आपको परीक्षा के लिए मानसिक रूप से तैयार कर पावेंगे। हॉं, दसवीं परीक्षा को वैकल्‍पिक बनाने से कोचिंग संस्‍थानों को हानि उठानी पड़ सकती है और कुछ अध्‍यापक अपने अध्‍यापन कार्य में शिथिल हो सकते हैं। इस हानि के बदले बच्‍चों को जो राहत मिलेगी, उन्‍हें जो सुकून मिलेगा वह अमूल्‍य व काल्‍पनातीत होगा। वे इस समय का उपयोग वेा पूरी तन्‍मयता से, बिना किसी भय या दबाव के भावी परीक्षा की तैयारी में लगाएगे और उसमें सफल होकर यह सिद्ध करेंगे कि दसवीं की परीक्षा केा वैकल्‍पिक बनाया जाना उनके वरिष्‍ठों द्वारा अपनी भावी पीढी के हित में उठाया गया एक सार्थक और लाभकारी कदम था ।

विनोद राय

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा विषय
    बहुत उम्दा आलेख............

    इस तरह का मानसिक दबाव आए दिन किशोर मन को ठेस पहुचाता है और वे बिना सोचे समझे कुछ ऐसे कदम उठा लेते है जिसके कारण माता पिता पूरे जीवन पश्चाताप करते है।

    ___बधाई ! आपके लेखन पर........

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