बुधवार, 16 सितंबर 2009

मितव्‍ययिता का दिखावा

हमारे राजनेताओं में कब कौन सा प्रेम जाग उठे, कहना कठिन है। सामान्‍यत: वे सर्वप्रथम अपने बारे में सोचते है, फिर अपने परिवार के बारे में, पुन: अपने शार्गिदों के बारे में, अपने रिश्‍ते-नातेदारों के बारे में तथा सबसे अंत में समाज और देश के बारे में सोचते है। यही इनकी ढांचागत विशेषता है। यही इनकी अंतर्निहित मजबूती है। देश और समाज के बारे में सोचना तो इनकी मजबूरी है, इनकी बेबसता है क्‍योंकि इन्‍हें हर पांच वर्ष के पश्‍चात जनता के समक्ष जाना होता है और अपनी चारित्रिक विशेषताएं बतानी होती है, अपनी नि:स्‍वार्थता की मिसाल प्रस्‍तुत करनी होती है, जनता के काज के प्रति अपना समर्पण दिखाना होता है, धूप में पैदल चलना होता है, गांव की चौपाल की जमीन में बैठकर खाना होता है, किसी चौराहे पर झाडू लगाना होता है इत्‍यादि कार्य करने होते है। हमारे देश की भोली जनता जो अभी भी गांवों में रहती है, राजनेताओं के इस कृत्‍य को उनके चरित्र में आया स्‍थाई परिवर्तन मान लेती है और उन्‍हें ही चुनकर वापस संसद भेज देती है। संसद पहुंचते ही नेता हमारे माया के वशीभूत हो जाते है, उनके ज्ञान का लोप हो जाता है, वे अज्ञान के अंधकार में खो जाते है और उनके स्‍वार्थ चक्षु प्रकाशमान हो जाते है तथा देश की आम जनता को, उनके जीवन स्‍तर को भूल जाते है तथा चुनाव में बाहए गए पसीने को ब्‍याज सहित वापस लेने में पूरे तन-मन-धन से जुट जाते है। हमारे कुछ मंत्री अभी पांच सितारा होटल में निवास कर रहे थे। बजट घाटा कुछ डीजीपी 6.8 प्रतिशत पहुंचने के बाद यकायक इन्‍हें याद आया कि यह कर्म तो ठीक नहीं है। इन नेताओं को शायद याद ही न रहा हो कि वे जिन होटलों में रह रहे थे वे पंचसितारा होटल थे ही नहीं क्‍योंकि जनता की भलाई से इन्‍हें फुर्सत तो मिलती नहीं। नेताओं की इस करतूत को छिपाने के लिए हमारे कुछ राजनेताओं ने जनता को कम खर्च का पाठ पढ़ाने का सोचा। उन्‍होंने इकनॉमी क्‍लास में यात्री करनी शुरू कर दी। जो पैसा इस यात्रा से बचा, उससे अधिक उसके प्रचार पर खर्च कर दिया। इसे कहते है एक तीर से दो शिकार करना। वो अलग बात है कि उनके इस मितव्‍ययिता यात्रा से कितनों की फ्लाइट छूट गई। कितनों को पुलिस ने अपमानित किया। कितना मानवाधिकारों का हनन हुआ यह अलग था। फ्लाइट में मंत्री जी सबके साथ बैठे है, सब चुप है। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। आई बी के लोग जो मंत्री जी के साथ थे। कुछ भी बोलने पर पता नहीं क्‍या डी कोड कर लें आई बी वाले। पूरी यात्रा में सन्‍नाटा था। मंत्री जी के सुरक्षा गार्ड लोगों को सामने देखने, बातचीत न करने, टायलट का उपयोग न करने की सख्‍त हिदायत दी थी तथा मंत्री जी के समीपस्‍थ बैठे यात्रियों से ऐसे असुविधाजनक प्रश्‍न पूछ रहे थे कि सारे यात्री अपने को चोर समझ रहे थे तथा भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि कब मंत्री जी की यह मितव्‍ययिता यात्री पूरी हो और हम लोगों की जान छूटें। साथ बैठे यात्रियों को ऐसा लग रहा था कि जैसे कि वे यात्रा नहीं कर रहे थे बल्‍कि इंट्रोगेशन के लिए कही ले जाए जा रहे हों। बाहर निकलने पर बहुत से यात्री इस सत्‍संग से अपनी सुध बुध खो बैठे थे। कुछ और मंत्रियों की मितव्‍ययिता की गाथाएं मीडिया में आ रही है। नेताओं के चरित्र उज्‍जवल हो रहे है और आम जनता उसी मितव्‍ययिता का पालन करती हुई दाल भी नहीं खा पा रही है। गांव में बैठा किसान नेताजी के इस आचरण पर उन्‍हें अपना मत देने के लिए पुन: आतुर है लेकिन याद रहे कि ये पब्‍लिक है सब जानती है।


विनोद राय
दशहरे की शुभकामना के साथ। (लेखक अवकाश पर है अक्‍टूबर में मिलेंगे)

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

परिवर्तन

सितंबर का महीना आ गया है। वर्षा ऋतु अपने अंतिम चरण में है। मौसम में नमी आ गई है। यह नमी हमारे मन और मस्तिष्‍क को भी भा रही है। मन को अच्‍छा लग रहा है। मन उदात्‍त हो रहा है। मन कुछ करने को चाह रहा है। मन आगे बढ़कर कुछ करना चाहता है। मन प्रचंड गर्मी की ताप से तप्‍त था। इसकी वजह से कुछ भी रूच नहीं रहा था। जब खुद का मन ठीन न हो तो व्‍यक्ति दूसरों को क्‍या सहयोग देगा। पर सितंबर माह के आगमन से ही परिवर्तन की बयार बहना शुरू हो जाती है। मन को भी अच्‍छा लगने लगता है। वर्षा ऋतु से नहाई प्रकृति नवीन दिख रही है, पौधों के पत्‍ते स्‍वच्‍छ हो गए है। पौधे पुष्पित हो गए है। वे वातावरण में अपनी महक बिखरने के लिए आतुर प्रतीत होते है। पक्षी भी डाल-डाल, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष बड़ी तत्‍परता से उड़ान भर रहे है। उनकी आवाजें वायुमंडल में मधुरता फैला रही है। सुबह-शाम हवा में हल्‍की ठंड घुली हुई महसूस होने लगी है। सुबह सुहावना होने लगा है। भोर में उठने की अब इच्‍छा नहीं होती है। सुबह होने तक निद्रा की देवी का साथ देने की इच्‍छा होती है। पार्कों, मैदानों में पड़ी ओस के कण नयनों को सुखद लगते हैं तथा मन में त्‍याग की भावना जगाते हैं क्‍योंकि जो त्‍यागता है वही मोती की भांति चमकता है। दिन में सूर्य की गर्मी मध्‍यम होने लगी है। दिन में सूर्यदेव का साथ मन को अरूचिकर नहीं लग रहा है। दिन में भी बाहर रहने की इच्‍छा हो रही है। गर्मी का प्रभाव कम होते ही बाहर की वस्‍तुएं भी अच्‍छी लगने लगी है। उनके प्रति एक लगाव पैदा हो रहा है। वे हमें आमंत्रित करती प्रतीत होती है। इसी तरह सायंकाल में उमस से राहत मिली है। पसीने का साथ छूट गया है। थकान से निजात मिली है। शाम की सुगंध महसूस की जा सकती है। पूरे वातावरण में फूलों की गंध व्‍याप्‍त है। यह गंध हमें घर वापस नहीं जाने देना चाहती है। रातभर विचरण की इच्‍छा हो रही है। गर्मी की कमी से बाहर के व्‍यक्ति व वस्‍तुएं भी तामसिक की जगह सात्विक दिखाई दे रही है। सत्‍य प्रतीत हो रही है, सत्‍य प्रतीत होने से सुंदर दिख रही है। कल्‍याणमयी हो गई है। उनकी सुंदरता मेरे मन को लुभा रही है। मुझे निमंत्रित कर रही है। मुझे अपना बना रही है। उम्‍मीद है कि प्रकृति का यह ऋतु परिवर्तन आपमें भी ऐसे मनोभाव उत्‍पन्‍न कर रहा होगा। आइए मिलजुलकर इस परिवर्तन का स्‍वागत करें। आह्लादित हो। इस परिवर्तन में खुद को भी परिवर्तित कर दें।


विनोद राय

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

दु:ख में सुमिरन सब करे

दिनांक 2 सितंबर, 2009 को सुबह-सुबह जब आंध्र प्रदेश के मुख्‍यमंत्री श्री राजशेखर रेड्डी का हेलीकॉप्‍टर सुबह 9:30 बजे से एटीसी के रडार से गायब हो गया और पूरे दिन राज्‍य सरकार और केंद्र सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद जब मुख्‍यमंत्री के हेलीकॉप्‍टर का कुछ भी पता नहीं चला तो शाम होते होते लोगों को दुश्‍चिंताओं ने घेर लिया तथा लोगों ने मुख्‍यमंत्री महोदय के सकुशल होने के लिए प्रार्थना करनी शुरू कर दी। यह प्रार्थना केवल आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ता नहीं कर रहे थे बल्‍कि मुख्‍यमंत्री की सलामती के लिए प्रार्थना करने वालों में हिंदू, मुस्‍लिम, सिख, ईसाई सहित सभी संप्रदायों व वर्गों के लोग शामिल थे। सभी एक ही स्‍थल में मौजूद होकर अपनी-अपनी तरफ से अपने इष्‍ट से रेड्डी जी के लिए प्रार्थना कर रहे थे। पहले तो यह देखकर अच्‍छा लगा कि सब धर्म के लोग एक ही स्‍थान पर एक ही काज के लिए एक साथ प्रार्थना कर रहे है। प्रार्थना कर रहे किसी भी समुदाय के व्‍यक्‍ति के लिए मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारा और चर्च की आवश्‍यकता नहीं थी। तो प्रश्‍न यह उठता है कि यदि सभी का लक्ष्‍य एक है, सभी के ईश एक है तो फिर मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारों, चर्च की जरूरत ही क्‍या है। दूसरी बात क्‍या केवल दु:ख पड़ने पर ही हम एक साथ एक कार्य के लिए इकट्ठे हो सकते है अन्‍यथा इतना अहं भरा है हममें कि सामान्‍य परिस्‍थितियों में हम सब इकट्ठे नहीं हो सकते है। यदि सामान्‍य परिस्‍थितियों में इकट्ठे होते भी है तो इसके लिए मंदिर, मस्‍जिद, गुरूद्वारा और चर्च का होना आवश्‍यक है। विचारणीय बात यह है कि दु:ख पड़ने पर तो सबका एक होना मानव का स्‍वभाव है परंतु यदि हममें सच्‍चे अर्थों में मानवीय मूल्‍यों का विकास करना है तो इसके लिए सभी धर्मों के लोगों को सुख में भी आपसी भेदभाव भूलकर एक दूसरे के साथ मिलजुलकर रहना होगा अन्‍यथा दु:ख में एक होना तो महज एक तात्‍कालिक एकता होगी। अत: सुख में एकता का प्रदर्शन करना ही वास्‍तविक और स्‍थाई एकता है इसलिए दु:ख से अधिक सुख में साथ-साथ सुमिरण करने की आवश्‍यकता है। जिससे सबका भला हो और सब साथ-साथ रहें।
जरा सोचे, विचारे फिर व्‍यवहार में लावें।
दिवंगत माननीय मुख्‍यमंत्री जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।




विनोद राय

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

परीक्षा का विकल्‍प

परीक्षा का नाम सुनते ही हर कोई सावधान हो जाता है चाहे वह बडा हो या छोटा, बालक हो या युवा, अधेड हो या बुजुर्ग, सबके ऊपर परीक्षा एक जैसा प्रभाव दिखाती है। परीक्षा कोई भी हो, चाहे वह पढाई की परीक्षा हो, नौकरी की परीक्षा हो, चाहे वह कोई अन्‍य परीक्षा हो, परीक्षा का नाम ही काफी है व्‍यक्‍ति को सचेत करने के लिए। परंतु सरकार द्वारा यह घोषणा किया जाना कि अब से दसवीं की परीक्षा अनिवार्य नहीं होगी, पूरे देश के लाखों बच्‍चेां व उनके अभिभावकों को थेाडी राहत मिलेगी। ऐसा नहीं है कि परीक्षा नहीं होनी चाहिए अथवा परीक्षा बुरी होती है, लेकिन परीक्षा ऐसी भी नहीं होनी चाहिए कि बच्‍चे के पीछे पूरा परिवार सब कुछ त्‍यागकर लग जाए। मां बाप सोते जागते बच्‍चे से एक ही रट लगाए रखते हैं कि उसे परीक्षा में अच्‍छा करना है, परीक्षा में सर्वश्रेष्‍ठ अंक प्राप्‍त करना है इत्‍यादि। इस तरह का मानसिक दबाव आए दिन किशोर मन को ठेस पहुचाता है और वे बिना सोचे समझे कुछ ऐसे कदम उठा लेते है जिसके कारण माता पिता पूरे जीवन पश्चाताप करते है।
अब जरा गौर करें दसवीं के छात्र के मानसिक व शारीरिक स्‍थिति पर। 14 वर्ष के बच्‍चे से समाज ने क्‍या अपेक्षा कर रखी है। ये दिन उसके खेलने, मुक्‍त विचरण के होते हैं पर हमने तेा कक्षा एक से ही उसे शिक्षा की बेडियों में जकड़ रखा है कि वह अपना बचपन ही भूल जाता है। हमारा बच्‍चा कक्षा एक में पढने गया नहीं कि हमें उसे यह बनाना है, हमें उसे वह बनाना है, निरंतर जाप करना शुरू कर देते हैं। बच्‍चा जो अभी बचपन से निकल शैशवावस्‍था में आता है कि आकाक्षाएं और भी बढ जाती है और हम उसे एक डाक्‍टर, इंजीनियर, आइटी विशेषज्ञ बनाने की सोचने लगते हैं और चारों पहर यही रट लगाए रहते हैं। माना कि बच्‍चों को प्रारंभ से ही पढने की आदत डालनी चाहिए उन्‍हें अनुशासित रखना चाहिए, उन्‍हें पढने के लिए विशेष ध्‍यान देना चाहिए जिससे आगे चलकर वे अपना जीवनयापन अच्‍छी तरह से कर सके, वे आत्‍मनिर्भर बने। इसी को ध्‍यान में रखकर हम अपने बच्‍चों को केवल पढने व केवल पढने पर जोर देते है (सिवाय कुछ धनाढ्य लोगो के जिनकी संतान को पढने या न पढने की सहूलियत मिली हुई है ) । महानगरों के अभिभावक तो और भी प्रभावी तरीके से बच्‍चों को पढाई करने को कहते हैं। निसंदेह उनका यह प्रभाव रंग दिखाता है और अधिकांश बच्‍चे सफल होते है परंतु तस्‍वीर का यह एक पहलू है। पूरा अखबार केवल कुछ ही बच्‍चों के बारे में बताता है जिन्‍होने अच्‍छे अंक से परीक्षा पास की है । इतने अच्‍छे स्‍कूल, उतने ही अच्‍छे अध्‍यापक और इतने ही अच्‍छे अभिभावकों के होने के बावजूद क्‍या देश का कोई स्‍कूल यह दावा कर सकता है कि उसके सारे बच्‍चों ने परीक्षा में एकसमान अंक प्राप्‍त किया है। ऐसा न हुआ है न कभी होगा। कारण सभी बच्‍चों की क्षमताएं अलग अलग हैं। कोई तीव्र बुद्धि का हो सकता है, तो कोई मध्‍यम बुद्धिवाला, तो कोई औसत समझ वाला, तो कोई कुसाग्र बुद्धि वाला। ऐसे में अभिभावकों और अध्‍यापकों द्वारा बच्‍चों से परीक्षा में अच्‍छा करने का जो मानसिक दबाव होता है वह बच्‍चों के लिए ठीक नहीं है। यह भी गौर करने की बात है कि विेदशी भी भारतीय शिक्षा पद्धति का लोहा मानते हैं परंतु इतने होनहार छात्रों के होते हुए विश्‍व की विभिन्‍न खोजों, अविष्‍कारों में भारत का क्‍या योगदान है यह सब को पता है और पूरा संसार भी इसे जानता है। ऐसे में परीक्षा के हौवे को 2 वर्षों के लिए टालकर मानव संसाधन मंत्री जी ने एक सराहनीय कार्य किया है। उनके इस प्रयास से बच्‍चों के कोमल मन को तैयारी करने का अतिरिक्‍त समय मिल जाएगा तथा उनमें परिपक्‍वता भी आ जाएगी वे अधिक समझदार व गंभीर हो जाएगे । वे अपने आपको परीक्षा के लिए मानसिक रूप से तैयार कर पावेंगे। हॉं, दसवीं परीक्षा को वैकल्‍पिक बनाने से कोचिंग संस्‍थानों को हानि उठानी पड़ सकती है और कुछ अध्‍यापक अपने अध्‍यापन कार्य में शिथिल हो सकते हैं। इस हानि के बदले बच्‍चों को जो राहत मिलेगी, उन्‍हें जो सुकून मिलेगा वह अमूल्‍य व काल्‍पनातीत होगा। वे इस समय का उपयोग वेा पूरी तन्‍मयता से, बिना किसी भय या दबाव के भावी परीक्षा की तैयारी में लगाएगे और उसमें सफल होकर यह सिद्ध करेंगे कि दसवीं की परीक्षा केा वैकल्‍पिक बनाया जाना उनके वरिष्‍ठों द्वारा अपनी भावी पीढी के हित में उठाया गया एक सार्थक और लाभकारी कदम था ।

विनोद राय