अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी बिल प्रस्तुत किया गया। पिछले 12 वर्षों से संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने पर विचार विमर्श, चिंतन बैठकें इत्यादि विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा किया जा चुका है। कुछ राजनैतिक दल अभी भी इस बिल को इस रूप में पास नहीं होना देना चाहते हैं। कारण, वे चाहते हैं कि इस आरक्षण के अंतर्गत भी कमजोर वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण किया जाए। एक कहावत है कि 'जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई' हमारे राजनीतिज्ञों ने समाज के हर क्षेत्र में आरक्षण लागू कर दिया है। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या व्यवसाय का क्षेत्र हो या सरकारी नौकरी हो या कोई अन्य कार्य। आरक्षण हर जगह लागू है। वैसे तो समाज के कमजोर तबके को मुख्य धारा में लाने का यह कारगर उपाय है परंतु यह पूर्ण रूप से सफल नहीं रहा है। कोई भी निर्णय जिससे अपना अहित न होता हो दूसरों पर बड़ी आसानी से थोपा जा सकता है परंतु जब उसी निर्णय को खुद पर लागू करने की बात आती है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है, दिन में ही तारे नजर आने लगते है। बात महिलाओं को 33 प्रतिशत संसद में आरक्षण देने की नहीं है असली बात तो यह है कि संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ते ही पुरुषों को अपनी सीटे उनके लिए खाली करनी पड़ेगी। एक बार जब व्यक्ति किसी चीज या वस्तु का अभ्यस्त हो जाता है तो उस पर वह अपना स्वामित्व समझने लगता है। ऐसे में उस स्वामित्व और सुविधा को खोना आसान नहीं होता है। मैं इस माध्यम से अपने जनप्रतिनिधियों को यह बताना चाहता हूँ कि जब नौकरियों में आरक्षण लागू करने की बात की जाती है और कानून बनाकर इसे और बढ़ाने की बात की जाती है तो कुछ इसी तरह की व्यग्रता और बौखलाहट के साथ-साथ निराशा की भी भावना प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीय के मन में घुमड़ने लगती है। हमारे जनप्रतिनिधियों के लिए अवसर है कि वे अपनी कथनी और करनी को एक रूप में प्रस्तुत करें जिससे आम जनता यह जान सके कि जो लेने वाले है वो देश और समाज की आवश्यकता के अनुरूप अपने हितों का त्याग भी कर सकते हैं।
विनोद राय